क्या चन्द्र कुंवर बर्त्वाल ने अपनी रचनाओं से प्रकृति और हिमालय के प्रति अनन्य प्रेम को अमर कर दिया?

सारांश
Key Takeaways
- चन्द्र कुंवर बर्त्वाल ने हिंदी साहित्य में अद्वितीय योगदान दिया।
- उनकी कविताएं प्रकृति के सौंदर्य और मानवीय संवेदनाओं को जीवंत करती हैं।
- उनका जीवन संघर्षपूर्ण लेकिन प्रेरणादायक था।
- वे केवल २८ वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह गए।
- उनकी रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण हैं।
नई दिल्ली, १३ सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। ‘माथे के ऊपर चमक रहे, नभ के चमकीले तारे हैं, मुझको तो हिम से भरे हुए अपने पहाड़ ही प्यारे हैं।‘ हिंदी के 'कालिदास' के रूप में प्रसिद्ध चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की यह कविता हमें उनके लिए प्रकृति और हिमालय के महत्व को दर्शाती है। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से पहाड़ों के प्रति गहरे लगाव और प्रकृति के सौंदर्य को प्रस्तुत किया है। उनकी रचनाएं न केवल हिंदी साहित्य की धरोहर हैं, बल्कि लोक संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं को भी जीवंत करती हैं।
हिंदी साहित्य को अपनी अनमोल कविताओं का खजाना देकर, इस कवि ने महज २८ वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह दिया। २० अगस्त १९१९ को उत्तराखंड में जन्मे इस कवि ने स्वाधीनता संग्राम के कठिन दिनों में लिखा था, “मुझे विश्वास है कि वह दिन दूर नहीं जब देश आजाद होगा”। उन्होंने लिखा, ‘हृदयो में जागेगा प्रेम और नैनों में चमक उठेगा सत्य। मिटेंगे झूठे सपने।‘ उनकी यह बात सच हुई, जब भारत ने १५ अगस्त १९४७ को आजादी प्राप्त की। हालांकि, उन्होंने १४ सितंबर को हमेशा के लिए आंखें बंद कर दीं। लेकिन उनके पीछे छोड़ा गया साहित्यिक खजाना आज भी हिंदी जगत को रोशन करता है।
उत्तराखंड की हिमालयी वादियों में जन्मे इस कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से पहाड़ों की गोद, नदियों की धारा और वनस्पतियों के सौंदर्य को इतने जीवंत तरीके से चित्रित किया कि पाठक स्वयं उन प्राकृतिक दृश्यों में खो जाते हैं। उनकी कविताओं में प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि एक जीवंत पात्र है जो मानव जीवन के उतार-चढ़ाव को प्रतिबिंबित करती है। आज भी उनके काव्य पर शोधकार्य हो रहे हैं, और वे हिंदी साहित्य के उन दुर्लभ रत्नों में से एक हैं, जिन्होंने कम आयु में ही प्रसिद्धि हासिल की।
कुंवर बर्त्वाल का जन्म उत्तराखंड के चमोली जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में हुआ था। उनके पिता एक निष्ठावान अध्यापक थे, जिनकी प्रेरणा से चन्द्र कुंवर को साहित्य और शिक्षा के प्रति लगाव हो गया। उनका असली नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल था, लेकिन साहित्यिक जगत में वे चन्द्र कुंवर बर्त्वाल के नाम से प्रसिद्ध हुए। स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण वे लंबे समय तक शहरों में नहीं रह सके और गांव लौट आए।
प्रकृति के निकट रहकर उन्होंने अपनी रचनाओं को और समृद्ध किया। उनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा, लेकिन स्वास्थ्य खराब रहने के बावजूद उन्होंने निरंतर लेखन किया। हिंदी का कालिदास उन्हें इसीलिए कहा जाता था, क्योंकि उनकी कविताओं में महाकवि कालिदास की भांति प्रकृति का मानवीकरण प्रमुख है। वे स्वयं कालिदास को अपना गुरु मानते थे। मात्र २८ वर्ष के छोटे से जीवन में उन्होंने लगभग १,००० कविताएं, २४ कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य रचा।
यह अकेला शून्य कमरा, यह अकेली चारपाई, गरीबी, बीमारियों के साथ यह ऐसी तबाही, किसी से मिलना न जुलना, ये घृणित बातें सभी, भाग्य ने दीं तुम्हें, या तुमने, हृदय, थीं स्वयं चाही?
चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का जीवन छोटा लेकिन सार्थक था। उनकी रचनाएं न केवल साहित्यिक मूल्य को जीवित रखती हैं, बल्कि हिंदी भाषा की समृद्धि का प्रतीक भी हैं।