क्या हरिप्रसाद चौरसिया ने बांसुरी को नई पहचान दिलाई?

सारांश
Key Takeaways
- हरिप्रसाद चौरसिया का जीवन संगीत और जुनून का प्रतीक है।
- उन्होंने बांसुरी को वैश्विक पहचान दिलाई।
- उनकी कला ने भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया।
- बांसुरी वादन की शिक्षा देने के लिए उन्होंने गुरुकुल की स्थापना की।
- उनकी धुनें आज भी श्रोताओं को भाव-विभोर करती हैं।
नई दिल्ली, 30 जून (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाइयों पर पहुँचाने वाले प्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की कहानी अद्भुत और प्रेरणादायक है। अपने जीवन और कला के माध्यम से उन्होंने यह सिद्ध किया है कि सच्चा जुनून और समर्पण असंभव को भी संभव बना सकता है। यदि बांसुरी ने उन्हें पहचान दी, तो उन्होंने इसे वैश्विक मंच पर एक पेशेवर वाद्य यंत्र के रूप में स्थापित किया।
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का जन्म १ जुलाई १९३८ को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हुआ था। उनके पिता एक पहलवान थे, जिनका सपना था कि उनका बेटा भी कुश्ती में नाम कमाए। लेकिन, नियति ने कुछ और ही लिखा था। जब वह मात्र पाँच साल के थे, तब उनकी माँ का साया सिर से उठ गया और वह बनारस चले आए। उनका बचपन बाबा विश्वनाथ की नगरी में गंगा के तट पर बीता, जहाँ संगीत की लय उनके भीतर बसने लगी थी।
हालांकि, उनके पिता चाहते थे कि वह कुश्ती सीखें, लेकिन हरिप्रसाद का मन तो संगीत की दुनिया में लगा था। १३ साल की उम्र में उन्होंने चुपचाप तबला सीखना शुरू किया, लेकिन जल्दी ही उनकी मुलाकात बांसुरी से हुई, जो उनके जीवन का सबसे बड़ा मोड़ साबित हुआ।
उन्होंने अपने पिता की इच्छा के खिलाफ जाकर संगीत की राह चुनी। उनकी प्रारंभिक संगीत शिक्षा बनारस में शुरू हुई, लेकिन असली गुरु बनीं सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ बाबा अलाउद्दीन खान की बेटी मां अन्नपूर्णा देवी। मां अन्नपूर्णा के सान्निध्य में हरिप्रसाद ने बांसुरी वादन की बारीकियाँ सीखी। उनकी साधना इतनी गहरी थी कि उन्होंने बांसुरी की हर धुन में अपनी आत्मा का रंग भर दिया।
१९५० के दशक में, हरिप्रसाद ने ऑल इंडिया रेडियो, कटक में बांसुरी वादक के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। यह वह समय था जब बांसुरी को शास्त्रीय संगीत में ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। लेकिन, हरिप्रसाद ने अपनी कला से बांसुरी को न केवल शास्त्रीय मंच पर स्थापित किया, बल्कि इसे विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उन्होंने फिल्म जगत में भी अपनी कला का जादू बिखेरा और शिव-हरि (शिवकुमार शर्मा और हरिप्रसाद चौरसिया) के रूप में कई प्रसिद्ध फिल्मों में संगीत दिया, जिनमें ‘चांदनी’, ‘लम्हे’ और ‘डर’ शामिल हैं।
हरिप्रसाद ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिमी दुनिया से जोड़ा। उन्होंने विश्वप्रसिद्ध कलाकारों जैसे जॉर्ज हैरिसन, जॉन मैकलॉघलिन और यहूदी मेनुहिन के साथ काम करके कला की दुनिया में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया। उनकी बनाई 'कॉल ऑफ द वैली' एल्बम ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यधिक प्रशंसा अर्जित की।
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया केवल एक वादक ही नहीं, बल्कि एक प्रेरक गुरु भी हैं। उन्होंने मुंबई और भुवनेश्वर में ‘वृंदावन गुरुकुल’ की स्थापना की, जहाँ सैकड़ों शिष्यों को बांसुरी वादन की शिक्षा दी जाती है। उनके शिष्यों में राकेश चौरसिया जैसे नाम भी शामिल हैं, जो आज बांसुरी वादन की दुनिया में अपनी पहचान बना चुके हैं।
उनकी कला को देश-विदेश में कई सम्मान मिल चुके हैं, जैसे कि भारत सरकार द्वारा १९९२ में पद्म भूषण और २००० में पद्म विभूषण का सम्मान। इसके अलावा, उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, कालिदास सम्मान और नीदरलैंड के प्रतिष्ठित 'ऑर्डर ऑफ द नीदरलैंड्स लायन' जैसे पुरस्कार भी मिले हैं। उनकी बांसुरी की धुनों ने न केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत को समृद्ध किया, बल्कि विश्व संगीत को भी नया आयाम दिया।
उनका निजी जीवन भी उतना ही साधारण और प्रेरणादायक है जितना उनकी कला। उनकी पत्नी अनुराधा चौरसिया उनके जीवन का एक मजबूत आधार रहीं। संगीत के प्रति उनका समर्पण और सादगी आज भी युवा कलाकारों के लिए प्रेरणा है। वे कहते हैं, "बांसुरी मेरे लिए केवल एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि मेरी आत्मा का हिस्सा है।"
८६ साल की उम्र में भी पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का उत्साह और संगीत के प्रति जुनून कम नहीं हुआ है। उनकी बांसुरी की धुनें आज भी श्रोताओं को भाव-विभोर कर देती हैं। चाहे वह राग यमन की मधुरता हो या राग दरबारी की गहराई, उनकी बांसुरी हर राग को एक नया रंग देती है।