क्या दुष्यंत की गज़लें आज भी हमारे दिलों को छूती हैं?
सारांश
Key Takeaways
- दुष्यंत कुमार ने हिंदी गज़ल को नई पहचान दी।
- उनकी रचनाएँ समाज की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
- गज़ल केवल प्रेम का माध्यम नहीं, बल्कि विरोध और चेतना का भी है।
- दुष्यंत के शब्द आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं।
- उनकी गज़लों में संघर्ष और उम्मीद की गहरी भावना है।
नई दिल्ली, 29 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। वर्ष 2015 में बॉलीवुड की फ़िल्म 'मसान' का प्रदर्शन हुआ। बनारस, जिसे आज के युवा वाराणसी के नाम से जानते हैं, के बैकड्रॉप में स्थित इस फ़िल्म के हर संवाद, दृश्य और गाने लोगों के दिलों तक पहुँच गए। एक प्रसिद्ध गाना है, 'तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।' यह गाना दुष्यंत कुमार की गज़ल से प्रेरित है, जिसने हर पीढ़ी को अपना दीवाना बना लिया।
दुष्यंत कुमार, जिन्होंने अंधेरे में रोशनी देखने की हिम्मत दी और एक पत्थर को आसमान में सुराख करने के लिए उछालने की कला भी सिखाई।
आज हम उसी कवि, लेखक और गज़लकार दुष्यंत कुमार की बात कर रहे हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से हर उम्र की नब्ज को छुआ और उसे जीने का एक कारण दिया।
'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।' ये पंक्तियाँ केवल शब्द नहीं हैं, बल्कि संघर्ष और उम्मीद की आवाज़ हैं। दुष्यंत कुमार की गज़लों ने आम आदमी की तड़प और पीड़ा को इतनी प्रभावी तरीके से व्यक्त किया कि पढ़ते ही ऐसा लगता है, जैसे वह दर्द आपके सामने जीवंत हो उठा हो। हिंदी गज़ल की दुनिया में उन्होंने न केवल भाषा और लहजे में नयापन लाया, बल्कि समाज की समस्याओं और आम आदमी की भावनाओं को भी कविता में जगह दी।
पहले गज़ल की परंपरा फ़ारसी और उर्दू में पनपी थी, लेकिन दुष्यंत कुमार ने 1970 के दशक के बाद इसे हिंदी और उर्दू के मिश्रित रंग में एक नई पहचान दी। उन्होंने गज़ल को केवल प्रेम और रोमांस तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने उसमें समाज की हकीकत, आम आदमी की पीड़ा और विरोध को भी शामिल किया।
दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितंबर, 1933 को बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गाँव में हुआ। प्रारंभिक जीवन में वे अपने नाम के आगे 'परदेसी' उपनाम जोड़ते थे, लेकिन बाद में इसे छोड़ दिया। उनकी लेखनी ने कम उम्र से ही प्रभाव डाला। 24 साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह 'सूर्य का स्वागत' प्रकाशित हुआ। इसके माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में अपनी मौजूदगी दर्ज कर दी। लेकिन, उनका असली योगदान हिंदी गज़ल में तब आया जब 1975 में उनका गज़ल संग्रह 'साए में धूप' प्रकाशित हुआ। यह संग्रह हिंदी गज़ल के इतिहास में एक मील का पत्थर बन गया।
दुष्यंत कुमार ने केवल 52 गज़लें ही लिखीं। उनकी गज़लों में जनसामान्य से जुड़े सरोकार, पीड़ा और संघर्ष इतनी सजीवता और गहराई से प्रस्तुत किए गए कि वे आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।
उन्होंने साहित्य को केवल शब्दों तक सीमित नहीं रखा। वे सामाजिक और राजनीतिक चेतना के कवि भी थे। उन्होंने आपातकाल का पुरजोर विरोध किया। उनकी कविता 'एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है।'
उनका साहित्यिक दृष्टिकोण गज़ल की परंपरा से गहरा जुड़ा था। उनके शब्दों में हमेशा समाज की असमानता और शोषण के खिलाफ मुखरता थी। दुष्यंत ने दिखाया कि गज़ल केवल मोहब्बत की भाषा नहीं, बल्कि विरोध, पीड़ा और चेतना का माध्यम भी हो सकती है।
30 दिसंबर, 1975 को दुष्यंत कुमार केवल 44 साल की उम्र में इस दुनिया से चले गए, लेकिन उनकी कविताएँ और गज़लें आज भी जीवित हैं। उनकी गज़लों में न केवल कला और भाषा की खूबसूरती है, बल्कि एक युग की पीड़ा, विरोध और आम आदमी की आवाज़ भी है। सड़कों से महफिलों और संसद तक, उनके शब्द आज भी गूंजते हैं।