क्या जरनैल सिंह ढिल्लों ने 1962 के एशियन गेम्स में डिफेंडर से स्ट्राइकर बनकर भारत को गोल्ड मेडल दिलाया?

सारांश
Key Takeaways
- जरनैल सिंह ढिल्लों ने अपने अदम्य साहस से भारत को गोल्ड मेडल दिलाया।
- उन्होंने एक डिफेंडर से स्ट्राइकर बनकर अपनी टीम को जीत दिलाई।
- उनका जीवन निडरता और दृढ़ता का प्रतीक है।
- उन्होंने फुटबॉल में कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किए।
- वे भारतीय फुटबॉल के स्वर्णिम युग के महत्वपूर्ण स्तंभ थे।
नई दिल्ली, 12 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। वर्ष 1962 था, और इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में एशियाई खेलों का आयोजन हो रहा था। मैदान पर तनाव की स्थिति चरम पर थी। लाखों इंडोनेशियाई दर्शक, जो भारत के प्रति विरोधी माहौल में थे, भारतीय टीम की हर चाल पर हूटिंग कर रहे थे। भारतीय फ़ुटबॉल टीम अपने इतिहास के सबसे बड़े मुकाबले, फाइनल में, दक्षिण कोरिया का सामना कर रही थी और इसका मुख्य किरदार था एक निडर सिख खिलाड़ी, जिसकी पहचान मैदान पर उसकी लौह-दीवार जैसी रक्षापंक्ति थी। नाम था जरनैल सिंह ढिल्लों।
जरनैल सिंह को दुनिया एशिया के सबसे बेहतरीन डिफेंडरों में से एक मानती थी, लेकिन वह फाइनल में डिफेंडर के बजाय स्ट्राइकर के रूप में खेल रहे थे क्योंकि सेमीफाइनल में वियतनाम के खिलाफ खेलते समय उनके सिर में गंभीर चोट लगी थी, जिसके लिए उन्हें छह टांके लगे थे। डॉक्टरों ने उन्हें खेलने से मना कर दिया था, लेकिन कोच एसए रहीम ने साहसिक दांव खेला। रहीम साहब को पता था कि जरनैल अपनी निडरता और हेडर की ताकत के कारण अटैक में भी महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं, बशर्ते उन्हें दौड़-भाग कम करनी पड़े।
और फिर, वह जादुई क्षण आया। जब मैच निर्णायक मोड़ पर था, तब जरनैल सिंह ने अपने सिर पर बंधी पट्टी के बावजूद, अपने शानदार हेडर से गेंद को नेट में डाल दिया। यह गोल केवल एक अंक नहीं था, यह दृढ़ संकल्प की विजय थी। भारत ने 2-1 से वह फाइनल मुकाबला जीता और स्वर्ण पदक हासिल किया। जरनैल सिंह, जो अपनी रक्षात्मक क्षमता के लिए जाने जाते थे, उस दिन स्ट्राइकर के हीरो बनकर उभरे। इस अदम्य साहस और अतुलनीय प्रदर्शन ने उन्हें भारतीय फुटबॉल का 'शेर' बना दिया।
जरनैल सिंह का जन्म 20 फरवरी 1936 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत (वर्तमान में पाकिस्तान) के फैसलाबाद में हुआ था। उनकी प्रारंभिक जिंदगी ने ही उन्हें निडरता का पहला पाठ पढ़ा दिया। 13 साल की छोटी उम्र में, उन्होंने भारत-पाकिस्तान विभाजन की भयावहता को करीब से देखा था। उन्होंने एक बार कहा था, "जब मैंने 13 साल की उम्र में मौत का सामना किया तो उसके बाद मुझे जिंदगी में किसी भी चीज से डर नहीं लगा।"
इस मानसिक दृढ़ता के साथ जरनैल सिंह ने अपने फुटबॉल करियर की शुरुआत पंजाब के खालसा कॉलेज, महिलपुर से की। 1959 में, वह कलकत्ता (अब कोलकाता) के दिग्गज क्लब मोहन बागान में शामिल हो गए।
कोलकाता फुटबॉल, जिसे 'मैदान' के नाम से जाना जाता है, जरनैल सिंह के लिए कर्मभूमि बन गया। उनकी ताकत, समय पर टैकल करने की कला और शारीरिक कौशल ने उन्हें देखते ही देखते क्लब का सितारा बना दिया। वह मोहन बागान की रक्षापंक्ति की एक ऐसी 'लौह दीवार' बन गए, जिसे पार करना विरोधी स्ट्राइकरों के लिए लगभग असंभव था। पश्चिम बंगाल के फुटबॉल प्रेमियों ने उन्हें प्यार से 'लायन' (शेर) कहना शुरू कर दिया।
1960 के रोम ओलंपिक में जरनैल सिंह ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी छाप छोड़ी। भारत भले ही उस टूर्नामेंट में ज्यादा सफल न हो पाया हो, लेकिन जरनैल सिंह का प्रदर्शन इतना शानदार था कि उन्हें उस समय के 'वर्ल्ड इलेवन' में शामिल करने पर विचार किया गया था और उन्हें दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्टॉपर बैक में से एक माना गया।
वह भारतीय फ़ुटबॉल के 'स्वर्णिम युग' (1950 और 1960 का दशक) के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ थे। वह न केवल एक बेहतरीन खिलाड़ी थे, बल्कि एक शानदार कप्तान भी थे।
1964 में, भारत ने एशियन कप में उपविजेता (रनर-अप) का स्थान हासिल किया। इस टूर्नामेंट में जरनैल सिंह ने रक्षापंक्ति का नेतृत्व किया और अपनी कप्तानी से टीम को प्रेरित किया।
1965 से 1967 तक, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय फुटबॉल टीम की कप्तानी की और चुन्नी गोस्वामी जैसे दिग्गजों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेले।
उनकी प्रतिभा का सबसे बड़ा सम्मान तब हुआ, जब उन्हें लगातार दो वर्षों (1966 और 1967) के लिए एशियाई ऑल-स्टार फुटबॉल टीम का कप्तान चुना गया। वह यह सम्मान पाने वाले एकमात्र भारतीय खिलाड़ी हैं।
उनके करियर की उपलब्धियों को देखते हुए, भारत सरकार ने 1964 में उन्हें अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया।
जरनैल सिंह का जीवन निडरता और दृढ़ता का प्रतीक था। मैदान पर, वह विरोधियों के लिए एक भयभीत करने वाली ताकत थे, लेकिन व्यक्तिगत रूप से, वह अत्यंत विनम्र और सौम्य माने जाते थे।
जरनैल सिंह 13 अक्टूबर 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनका नाम आज भी भारतीय फुटबॉल के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।