क्या जसवंत सिंह का जीवन वाजपेयी के 'हनुमान' से विद्रोही राजनेता बनने की अनकही दास्तान है?

सारांश
Key Takeaways
- जसवंत सिंह का जीवन एक प्रेरणादायक यात्रा है।
- उन्होंने राजनीति में साहस और सिद्धांतों के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- उनकी बेबाकी और कूटनीतिक कौशल ने उन्हें एक महत्वपूर्ण नेता बनाया।
- उनकी कहानी हमें सिखाती है कि राजनीति सिद्धांतों की जंग है।
- जसवंत सिंह जैसे नेताओं की याद हमें सिद्धांतों की अहमियत बताती है।
नई दिल्ली, 26 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय राजनीति के प्रतिष्ठित और भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक नेताओं में से एक जसवंत सिंह का नाम आज भी सम्मान के साथ लिया जाता है। सेना के मेजर से लेकर विदेश, रक्षा और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों की कमान संभालने वाले इस राजनेता ने अपनी बेबाकी और सिद्धांतों से देश की कूटनीति और राजनीति को नई दिशा दी। वाजपेयी के 'हनुमान' कहे जाने वाले जसवंत सिंह का जीवन साहस, स्वाभिमान और विद्रोह की अनूठी गाथा है।
जसवंत सिंह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ राजनेता रहे, जिन्हें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपना 'हनुमान' कहते थे। आज भी वो अपनी नम्रता, नैतिकता और बेबाकी के लिए याद किए जाते हैं।
जसवंत सिंह उन दुर्लभ नेताओं में से थे, जिन्हें भारत के रक्षा, वित्त और विदेश मंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ। उनका जीवन सफलताओं की ऊंचाइयों से विद्रोह की गहराइयों तक का रहा।
3 जनवरी 1938 को राजस्थान के बाड़मेर जिले के छोटे से गाँव जसोल में राजपूत परिवार में पले-बढ़े जसवंत सिंह ने बचपन से ही अनुशासन और देशभक्ति की सीख ली। शिक्षा पूरी करने के बाद वे भारतीय सेना में शामिल हो गए। आर्टिलरी रेजिमेंट में मेजर के पद तक पहुंचे। 1960 के दशक में सेना से इस्तीफा देकर राजनीति में कदम रखा। शुरुआती दिनों में वे जनसंघ से जुड़े, जो बाद में भाजपा बनी।
1980 में राज्यसभा सदस्य चुने गए, जो उनके लंबे संसदीय सफर की शुरुआत थी। 1991 से 2014 तक वे पाँच बार लोकसभा सदस्य रहे।
राजस्थान की रेतीली धरती से दिल्ली के तख्त तक का यह सफर उनकी मेहनत का प्रतीक था।
राजनीतिक करियर में जसवंत सिंह की असली पहचान वाजपेयी सरकार से जुड़ी। 1996 में मात्र 13 दिनों की एनडीए सरकार में वे वित्त मंत्री बने। फिर 1998-2004 के कार्यकाल में उन्होंने कई मोर्चों पर कमान संभाली। 1998 से 2002 तक विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने भारत की कूटनीति को नई दिशा दी।
पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बीच उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पक्ष मजबूती से रखा।
पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में उनकी भूमिका सराहनीय रही। 2002-2004 में रक्षा मंत्री बनकर उन्होंने कारगिल युद्ध के बाद सेना के आधुनिकीकरण पर जोर दिया। वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने आर्थिक सुधारों को गति दी, हालांकि कंधार हाईजैक कांड ने उनकी छवि पर असर डाला।
1999 में इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट आईसी-814 के अपहरण में उन्होंने तत्कालीन विदेश मंत्री के रूप में आतंकवादियों को रिहा करने का निर्णय लिया, जिसकी राजनीतिक आलोचना हुई।
जसवंत सिंह की बेबाकी ने उन्हें विवादों से भी जोड़ा। 2009 में उनकी पुस्तक 'जिन्ना: इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस' ने हंगामा मचा दिया। इसमें उन्होंने जिन्ना को 'सेकुलर' बताया था, जिसके चलते भाजपा ने उन्हें प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित कर दिया।
2014 के लोकसभा चुनाव में बाड़मेर से भाजपा टिकट कटने पर उन्होंने निर्दलीय लड़ाई लड़ी, लेकिन हार गए। स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद वे व्हीलचेयर पर आ गए। फिर भी उन्होंने राजनीति से संन्यास नहीं लिया।
27 सितंबर 2020 को 82 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया, लेकिन उनके योगदान की गूंज आज भी राजनीतिक गलियारों में सुर्खियां बटोरता रहता है।
जसवंत सिंह की विरासत में कूटनीतिक कौशल, सैन्य अनुभव और नैतिक साहस शामिल है। आज जब भारत वैश्विक पटल पर मजबूत हो रहा है, जसवंत सिंह जैसे नेताओं की याद हमें सिखाती है कि राजनीति सिर्फ सत्ता नहीं, बल्कि सिद्धांतों की जंग है।