क्या बिहार चुनाव में कुर्था की सियासी हवा ने बदल ली दिशा? जानें समाजवादी विरासत से चुनावी दंगल की कहानी

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क्या बिहार चुनाव में कुर्था की सियासी हवा ने बदल ली दिशा? जानें समाजवादी विरासत से चुनावी दंगल की कहानी

सारांश

बिहार के कुर्था में सियासी बदलावों की कहानी है। यहाँ की राजनीति की जड़ें समाजवाद में गहरी हैं। क्या 2020 के चुनाव ने नई दिशा दी?

Key Takeaways

  • कुर्था की राजनीतिक विरासत समाजवाद में गहराई से जुड़ी है।
  • जातिगत समीकरण यहां की राजनीति को प्रभावित करते हैं।
  • बागी कुमार वर्मा की जीत ने नई दिशा दी है।
  • कुर्था में कोई बड़ी हिंसक घटना नहीं हुई है।
  • यहां का हर चुनाव पहचान और विकास का मुद्दा बनता है।

पटना, 29 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। बिहार के अरवल जिले में मगध के उपजाऊ मैदानों के बीच स्थित कुर्था, एक विकास खंड ही नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक और राजनीतिक रणभूमि है। सोन नदी की जीवनदायिनी धारा के किनारे बसा यह क्षेत्र सदियों से बदलावों का गवाह रहा है। धान, गेहूं और दलहन की हरी-भरी फसलों के बीच यहां की राजनीति में हमेशा एक गहरी समाजवादी जड़ रही है।

कुर्था की भूमि जितनी उपजाऊ है, यहां की सियासत उतनी ही जटिल और ऐतिहासिक रही है।

1951 में विधानसभा क्षेत्र के रूप में स्थापित होने के बाद इस सीट पर समाजवादियों का गहरा प्रभाव रहा है। शुरुआती दशकों में सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, शोषित दल और जनता पार्टी जैसी पार्टियों ने बारी-बारी से जीत हासिल की।

इस विरासत का सबसे बड़ा नाम रहे बिहार के दिग्गज समाजवादी नेता जगदेव प्रसाद ऊर्फ जगदेव बाबू। उन्होंने कुर्था का प्रतिनिधित्व 1967 और 1969 में लगातार दो बार विधायक बनकर किया, जिससे इस क्षेत्र की पहचान राज्य की राजनीति में मजबूत हुई। उन्होंने 1968 में चार दिनों के लिए बिहार के उपमुख्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया था। उनके बेटे नागमणि कुशवाहा भी इस सीट से दो बार चुनाव जीते।

हालांकि, समय के साथ यहां की सियासी हवा बदली। हाल के वर्षों में यह मुकाबला मुख्य रूप से राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के बीच केंद्रित हो गया है। इन दोनों दलों ने यहां दो-दो बार परचम लहराया है, जबकि कांग्रेस भी दो बार जीती है।

2020 के विधानसभा चुनाव ने एक नया अध्याय लिखा। यह मुकाबला सीधे-सीधे राजद और जदयू के बीच था। राजद के उम्मीदवार बागी कुमार वर्मा ने जदयू के सत्यदेव सिंह को हराया। बागी कुमार वर्मा ने भारी अंतर से जीत हासिल की और कुर्था की कमान अपने हाथ में ले ली।

यहां के मतदाता जातिगत समीकरणों के प्रति बहुत जागरूक रहे हैं। इस ग्रामीण सीट पर भूमिहार, कुर्मी, रविदास, राजपूत और कोइरी वोटरों की निर्णायक भूमिका है। कुर्था की आबादी में कुशवाहा, यादव और भूमिहार समुदाय प्रमुख हैं, जो चुनावी रणनीतियों की दिशा तय करते हैं।

कुर्था मगध जोन का हिस्सा रहा है, जो 1990 और 2000 के दशक में जहानाबाद के जंगलों से गया की पहाड़ियों तक माओवादियों के लिए एक ट्रांजिट कॉरिडोर के रूप में कार्य करता था।

हालांकि, 2020 के बाद स्थिति में बड़ा सुधार आया और यहां कोई बड़ी हिंसक घटना सामने नहीं आई है। कुर्था विधानसभा क्षेत्र पूरी तरह से एक ग्रामीण सीट है।

कुर्था की कहानी मगध के गौरवशाली अतीत, एक समाजवादी विरासत, नक्सल के साए से उबरने की कोशिश और एक जटिल चुनावी गणित का मिश्रण है। यहां का हर चुनाव सिर्फ सत्ता का खेल नहीं, बल्कि इस क्षेत्र की पहचान और विकास की दिशा तय करने का एक निर्णायक मोड़ होता है।

Point of View

कुर्था भी एक नई पहचान की ओर बढ़ रहा है।
NationPress
29/10/2025

Frequently Asked Questions

कुर्था विधानसभा क्षेत्र का इतिहास क्या है?
कुर्था का विधानसभा क्षेत्र 1951 में स्थापित हुआ और यहां समाजवादियों का गहरा प्रभाव रहा है।
बागी कुमार वर्मा ने कब जीत हासिल की?
बागी कुमार वर्मा ने 2020 में जदयू के सत्यदेव सिंह को हराकर जीत हासिल की।
कुर्था में कौन-कौन से समुदाय महत्वपूर्ण हैं?
कुर्था में भूमिहार, कुर्मी, रविदास, राजपूत और कोइरी समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका है।
क्या कुर्था में हाल के वर्षों में हिंसा हुई है?
2020 के बाद कुर्था में कोई बड़ी हिंसक घटना नहीं हुई है।
कुर्था की राजनीति में समाजवाद का क्या महत्व है?
कुर्था की राजनीति में समाजवाद की जड़ें गहरी हैं, जो चुनावी रणनीति को प्रभावित करती हैं।