क्या मदन मोहन मालवीय का जीवनवृत्त है 'महामना' और 'भिखारियों का राजकुमार'?
सारांश
Key Takeaways
- मालवीय जी का सपना: भारतीय संस्कृति और आधुनिकता का संगम।
- नीलामी की घटना: निजाम की जूती की नीलामी ने समाज में जागरूकता फैलाई।
- बीएचयू की स्थापना: शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अद्वितीय है।
- महात्मा गांधी का मान: उन्हें 'भिखारियों का राजकुमार' कहा गया।
- समाज से जुड़ाव: उन्होंने हजारों दलितों को मुख्यधारा से जोड़ा।
नई दिल्ली, २४ दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। हैदराबाद के निजाम का दरबार सजा हुआ था। श्वेत वस्त्र, ललाट पर चंदन लगाए हुए एक तेजस्वी ब्राह्मण, पंडित मदन मोहन मालवीय वहां उपस्थित थे। वे काशी में एक ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करने का सपना लेकर आए थे, जहां भारतीय संस्कार और आधुनिक विज्ञान का सामंजस्य हो। जब मालवीय ने चंदा मांगा, तो अहंकारी निजाम ने कठोरता से अपनी पुरानी जूती उनकी ओर उछाल दी और कहा, "यही है मेरे पास देने के लिए।"
अगर कोई और होता तो वह अपमानित महसूस करता, लेकिन मालवीय महामना थे। उन्होंने वह जूती उठाई, उसे सिर से लगाया और बाजार की ओर बढ़ गए। वहां उन्होंने ढोल बजाकर शोर मचाया कि निजाम की शाही जूती की नीलामी हो रही है।
अपनी इज्जत को मिट्टी में मिलते देखकर निजाम ने तुरंत बड़ी रकम देकर वह जूती वापस खरीदी और विश्वविद्यालय के कोष में बड़ा दान दिया। यह थे मालवीय, जिन्हें महात्मा गांधी ने 'भिखारियों का राजकुमार' कहा था।
२५ दिसंबर १८६१ को तीर्थराज प्रयाग की पवित्र भूमि पर जब मदन मोहन का जन्म हुआ, तब देश १८५७ की क्रांति के बाद की राख से पुनः खड़ा हो रहा था। उनके पिता पंडित ब्रजनाथ की भागवत कथाओं ने उनमें धर्म की गहरी जड़ें डालीं, जबकि म्योर सेंट्रल कॉलेज की आधुनिक शिक्षा ने उन्हें तर्क की शक्ति दी। 'मकरंद' उपनाम से कविताएं लिखने वाले इस युवक के भीतर देश को स्वतंत्र देखने की आकांक्षा बचपन से ही थी।
मालवीय ने 'हिंदुस्तान', 'अभ्युदय' और 'द लीडर' जैसे समाचार पत्रों के माध्यम से सोए हुए भारत को जगाने का कार्य किया। उनकी वकालत का लोहा पूरा देश तब मानने लगा जब उन्होंने 'चौरी-चौरा कांड' के १५६ अभियुक्तों को फांसी के फंदे से बचा लिया। सर तेज बहादुर सप्रू ने सही कहा था कि यदि मालवीय जी केवल वकालत करते, तो वे दुनिया के सबसे बड़े कानूनविद् होते। लेकिन, उनकी मंजिल निजी लाभ नहीं, राष्ट्र की सेवा थी।
वर्ष १९१६ की वसंत पंचमी का दिन था। गंगा के किनारे 'बनारस हिंदू विश्वविद्यालय' का शिलान्यास हो रहा था। मालवीय जी का विजन स्पष्ट था कि हमें ऐसे युवा चाहिए जो संस्कृत भी जानें और साइंस भी। उन्होंने दरभंगा के महाराजा से लेकर आम आदमी तक से चंदा जुटाया। आज बीएचयू की १,३०० एकड़ की हरियाली और उसकी भव्यता मालवीय जी के उसी अडिग संकल्प का जीवंत प्रमाण है।
पंडित मोहन मालवीय कांग्रेस के चार बार अध्यक्ष रहे। वे नरम और गरम दल के बीच का वह पुल थे, जिस पर चलकर भारतीय राजनीति आगे बढ़ी। आज हम जो राष्ट्रवाक्य 'सत्यमेव जयते' गर्व से दोहराते हैं, उसे मुंडकोपनिषद से निकालकर राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले मालवीय ही थे।
उन्होंने हजारों दलितों को मंत्र-दीक्षा देकर समाज की मुख्यधारा से जोड़ा। गंगा की अविरल धारा को बचाने के लिए उन्होंने अंग्रेजों से संघर्ष किया और 'गंगा महासभा' का गठन किया। उनके लिए भारत का अर्थ उसकी नदियां, उसकी भाषा (हिंदी) और उसकी संस्कृति थी।
१२ नवंबर १९४६ को जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो देश आजादी की दहलीज पर खड़ा था। डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें 'कर्मयोगी' और गांधी जी ने उन्हें 'महामना' माना। उनके निधन के दशकों बाद, २०१४ में भारत सरकार ने उन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।