क्या बॉलीवुड के 'राजकुमार' : हिंदी सिनेमा का सितारा, डायलॉग और अदाकारी ने कर दिया अमर?

सारांश
Key Takeaways
- राज कुमार ने हिंदी सिनेमा में एक नई पहचान बनाई।
- उनके डायलॉग्स आज भी लोगों की जुबान पर हैं।
- अभिनय में उनका आत्मविश्वास अद्वितीय था।
- उन्होंने कई प्रसिद्ध फिल्मों में यादगार भूमिकाएं अदा की।
- उनकी जीवन यात्रा प्रेरणादायक है।
नई दिल्ली, २ जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। फिल्म ‘पाकीजा’ का ‘आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे’ जैसा रोमांटिक डायलॉग हो या फिर फिल्म ‘वक्त’ का ‘चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के बने होते हैं, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते’। भले ही दोनों डायलॉग एक-दूसरे से बिलकुल जुदा हों, लेकिन अभिनेता राज कुमार ने अपनी दमदार आवाज, प्रभावशाली शख्सियत और अभिनय से दर्शकों के दिलों पर राज किया।
राज कुमार फिल्मों के ऐसे नायक थे, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में डायलॉग को एक नया अंदाज देने का काम किया। उनका ‘जानी’ कहना आज भी भुलाया नहीं गया है। उनकी गहरी आवाज और बेबाक संवाद अदायगी ने दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ी।
यही वजह थी कि उनकी बड़े पर्दे पर दमदार मौजूदगी ने उन्हें बॉलीवुड का बेताज बादशाह बनाया। आत्मविश्वास से भरे उनके अंदाज और हर किरदार को जीवंत करने की कला ने उन्हें सिनेमाई इतिहास में अमर कर दिया।
८ अक्टूबर १९२६ को बलूचिस्तान (अब पाकिस्तान) के लोरलाई में एक कश्मीरी पंडित परिवार में राज कुमार का जन्म हुआ था। उनका असली नाम कुलभूषण पंडित था। उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद १९४० के दशक में मुंबई के माहिम पुलिस स्टेशन में सब-इंस्पेक्टर के रूप में काम शुरू किया। हालांकि, उनकी कदकाठी और बातचीत के प्रभावशाली अंदाज ने उन्हें फिल्म इंडस्ट्री की ओर आकर्षित किया।
एक सिपाही की सलाह और फिल्म निर्माता बलदेव दुबे के प्रस्ताव के बाद उन्होंने नौकरी छोड़कर फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा। उन्होंने १९५२ में फिल्म ‘रंगीली’ से अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत की, लेकिन यह फिल्म ज्यादा सफल नहीं रही।
१९५२ से १९५७ तक उन्होंने ‘अनमोल सहारा’, ‘अवसर’, ‘घमंड’, ‘नीलमणि’ और ‘कृष्ण सुदामा’ जैसी कई फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं निभाईं, लेकिन सफलता ने उनका साथ नहीं दिया। हालांकि, १९५७ में महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ से एक बड़ा ब्रेकथ्रू मिला, जिसमें उन्होंने नरगिस के पति और एक किसान की छोटी, लेकिन प्रभावशाली भूमिका निभाई। इस फिल्म ने उन्हें रातों-रात स्टार बना दिया और इंटरनेशनल लेवल पर भी उन्हें पहचान मिली। इसके बाद १९५९ में उनकी झोली में फिल्म ‘पैगाम’ आई, जिसमें दिलीप कुमार जैसे दिग्गज अभिनेता थे। इस फिल्म में राज कुमार की अदाकारी ने दर्शकों का दिल जीत लिया।
१९६० के दशक में राज कुमार ने ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ (१९६०), ‘घराना’ (१९६१), ‘गोदान’ (१९६३), ‘दिल एक मंदिर’ (१९६३), ‘वक्त’ (१९६५), और ‘काजल’ (१९६५) जैसी फिल्मों में एक्टिंग का लोहा मनवाया। हालांकि, ‘वक्त’ और ‘पाकीजा’ (१९७२) में उनके निभाए किरदार को न केवल पसंद किया गया, बल्कि उनके ‘आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे’ और ‘चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के बने होते हैं, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते’ जैसे डायलॉग लोगों की जुबान पर चढ़ गए।
१९७० और १९८० के दशक में उनका जलवा जारी रहा और उन्होंने ‘हीर रांझा’ (१९७०), ‘मर्यादा’ (१९७१), ‘सौदागर’ (१९७३), ‘कर्मयोगी’ (१९७८), ‘बुलंदी’ (१९८०), ‘कुदरत’ (१९८१), और ‘तिरंगा’ (१९९२) जैसी फिल्मों में निभाए गए अलग-अलग किरदारों से दर्शकों को अपना दीवाना बनाए रखा।
राज कुमार की सबसे बड़ी खासियत उनके डायलॉग थे, जिन्होंने उनकी गहरी आवाज और बेबाक अंदाज को फिल्म के किरदारों में अमर कर दिया। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उनके बारे में ऐसा कहा जाता था कि वे अपनी शर्तों पर काम करते थे और उन्हें अगर कोई डायलॉग पसंद नहीं आता था तो उसे बदल दिया करते थे। उनकी बेबाकी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि फ्लॉप फिल्मों के बाद भी वे अपनी फीस बढ़ा देते थे। उनका मानना था कि फिल्म भले फ्लॉप हो, लेकिन उनका अभिनय कभी फेल नहीं होता।
फिल्म 'सौदागर' का ‘हम तुम्हें मारेंगे और जरूर मारेंगे। लेकिन, वह वक्त भी हमारा होगा। बंदूक भी हमारी होगी और गोली भी हमारी होगी।’ डायलॉग हो या फिल्म 'तिरंगा' का ‘हम आंखों से सुरमा नहीं चुराते। हम आंखें ही चुरा लेते हैं।’ या फिर फिल्म 'मरते दम तक' का ‘हम कुत्तों से बात नहीं करते।’, सारे डायलॉग्स उनके फैंस को याद हैं।
फिल्म जगत के सर्वोच्च पुरस्कार ‘दादा साहेब फाल्के’ से सम्मानित राज कुमार के कई डायलॉग्स आज भी सिनेमा प्रेमियों की जुबान पर जिंदा हैं।
बताया जाता है कि राज कुमार को १९९० के दशक में गले का कैंसर हो गया था, जिसके बारे में उन्होंने सार्वजनिक रूप से खुलासा नहीं किया था। ३ जुलाई १९९६ को ६९ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। राज कुमार की इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार गुपचुप तरीके से किया जाए।