क्या स्वर साधना जीवन साधना बन गई? ओंकारनाथ ठाकुर की अमर विरासत
सारांश
Key Takeaways
- ओंकारनाथ ठाकुर का संगीत केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि साधना का माध्यम था।
- उन्होंने संगीत शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- उनकी गायकी ने आम जनता को भी प्रभावित किया।
- संगीत को उन्होंने जीवन के साथ जोड़ दिया।
- वे शिक्षा और कला के बीच एक पुल बने।
नई दिल्ली, 28 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय संगीत के क्षेत्र में 29 दिसंबर एक महत्वपूर्ण तिथि है, जब स्वर, साधना और संस्कृति का एक अद्वितीय युग समाप्त हो गया। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, संगीतज्ञ और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायन के असाधारण साधक पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने 1967 में इस दिन हमें अलविदा कहा। उनके गाए स्वर आज भी भारतीय चेतना में गूंजते हैं। ओंकारनाथ ठाकुर सिर्फ एक गायक नहीं थे, बल्कि उन्होंने संगीत को जीवन और जीवन को साधना मानने का एक अद्वितीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
50 और 60 के दशक में, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर की गायकी ने देश के मंचों पर एक अलग पहचान बनाई। उनकी गायकी में शास्त्रीय अनुशासन के साथ एक विशेष आकर्षण था, जिससे साधारण श्रोतागण भी उनके प्रति आकर्षित हो जाते थे। ग्वालियर घराने से जुड़े इस महान कलाकार ने शास्त्र और भाव के बीच एक सशक्त पुल का निर्माण किया, जो उन्हें उस समय के संगीत परिदृश्य का सबसे आकर्षक व्यक्तित्व बनाता है।
पंडित ओंकारनाथ का जन्म 24 जून 1897 को बड़ौदा राज्य (वर्तमान गुजरात) के एक गरीब परिवार में हुआ। उनके दादा महाशंकर और पिता गौरीशंकर नाना साहब पेशवा की सेना के वीर योद्धा थे। उनके पिता का अलोनीबाबा नामक योगी से संबंध और प्रणव-साधना में रुचि ने परिवार के जीवन की दिशा को बदल दिया। उसी साधना के प्रभाव में उनका नाम ओंकारनाथ रखा गया। बाद में परिवार नर्मदा तट पर भड़ौच में बस गया, जहाँ उनका पालन-पोषण और प्रारंभिक शिक्षा हुई। बचपन का समय अभावों में बीता और परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्हें मिल में काम करना पड़ा। 14 वर्ष की उम्र में पिता का साया उठ गया, लेकिन यही संघर्ष उनके व्यक्तित्व की मजबूत नींव बना।
भड़ौच के एक संगीत प्रेमी सेठ ने किशोर ओंकारनाथ की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें संगीत की शिक्षा के लिए बंबई के विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय भेजने का सुझाव दिया। यहीं से उनके जीवन की दिशा तय हुई। पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मार्गदर्शन में उन्होंने पांच वर्ष का पाठ्यक्रम मात्र तीन वर्षों में पूरा किया और फिर गुरु-शिष्य परंपरा के तहत गहन साधना की। 20 वर्ष की आयु में ही वे इतने कुशल हो गए कि लाहौर के गान्धर्व संगीत विद्यालय के प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिए गए। 1934 में मुंबई में उन्होंने 'संगीत निकेतन' की स्थापना की, जो उनके शिक्षाशास्त्री व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण प्रमाण था।
महामना पंडित मदनमोहन मालवीय चाहते थे कि ओंकारनाथ ठाकुर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संगीत संकाय का नेतृत्व करें। आर्थिक कारणों से यह तुरंत संभव नहीं हो सका, लेकिन जब पंडित जी विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत समारोह में आए, तो काशी का वातावरण उन्हें इतना भाया कि वे वहीं बस गए। 1950 में उन्होंने बीएचयू के गन्धर्व महाविद्यालय के प्रधानाचार्य का पद संभाला और 1957 तक संगीत-शिक्षा की गरिमा को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
पंडित ओंकारनाथ ठाकुर का प्रभाव मंच तक सीमित नहीं था। महात्मा गांधी ने उनके गायन को सुनकर कहा था कि पंडित जी अपनी एक रचना से जन-समूह को इतना प्रभावित कर सकते हैं, जितना मैं अपने अनेक भाषणों से नहीं कर सकता। उन्होंने सर जगदीशचन्द्र बसु की प्रयोगशाला में पेड़-पौधों पर संगीत के प्रभाव का सफल प्रयोग किया। 1933 में इटली यात्रा के दौरान, जब मुसोलिनी को छह महीने से नींद नहीं आई थी, पंडित जी के गायन से उसे तत्काल नींद आ गई। यह उनके संगीत का वह जादू था, जो आम और खास दोनों को सम्मोहित कर लेता था।
29 दिसंबर 1967 को पंडित ओंकारनाथ ठाकुर हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके स्वर आज भी हमारे कानों में गूंजते हैं। लोग आज भी कहते हैं कि पंडित जी भारतीय संगीत परंपरा के ऐसे स्तंभ हैं, जिन्होंने अभावों को साधना में बदला और संगीत को जन-जन तक पहुंचाया। साथ ही, वे शिक्षा और कला के बीच एक सशक्त पुल बनकर खड़े रहे।