क्या त्रिलोचन शास्त्री ने प्रेम, प्रकृति और सामाजिक यथार्थ को अपनी लेखनी से छुआ?
सारांश
Key Takeaways
- त्रिलोचन शास्त्री का साहित्य सामाजिक यथार्थ को दर्शाता है।
- उन्होंने कई कविता विधाओं में रचनाएँ कीं।
- उनकी कविताएँ आज भी समाज में बदलाव लाने की प्रेरणा देती हैं।
- वे सादगी के पुजारी थे और जीवन के अंतिम क्षणों में भी सादगी को बनाए रखा।
- उनकी रचनाएं हमें प्रेम और प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनाती हैं।
नई दिल्ली, 8 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। हिंदी साहित्य के प्रगतिशील युग के सबसे अनूठे और जनहितकारी कवियों में त्रिलोचन शास्त्री (जिनका असली नाम वासुदेव सिंह है) का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। आज जब हिंदी कविता बाजारू चमक-दमक और खोखले नारों की चपेट में है, त्रिलोचन की रचनाएं यह याद दिलाती हैं कि सच्ची प्रगतिशीलता नारे में नहीं, बल्कि जीवन की गहराई में बसती है।
त्रिलोचन का जन्म फैजाबाद (अब अयोध्या) जिले के चांदा गांव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ। उन्होंने बचपन से ही संस्कृत, फारसी और उर्दू का गहराई से अध्ययन किया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की, जिसके बाद उनका नाम त्रिलोचन शास्त्री पड़ा। वे प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय सदस्य रहे और नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर और रघुपति सहाय 'फिराक' जैसे दिग्गजों के करीबी मित्र थे।
उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खासियत जीवन का यथार्थ और भाषा की सरलता थी। वे कभी नारे नहीं लगाते थे, बल्कि गांव की मिट्टी, खेतों, मेहनतकश किसानों और मजदूरों की ज़िंदगी को इतनी जीवंतता से प्रस्तुत करते थे कि पाठक खुद को उसी परिवेश में पाता था। उनकी कई प्रसिद्ध पंक्तियाँ आज भी गूंजती हैं।
त्रिलोचन ने गज़ल, गीत, मुक्तक, हाइकु, दोहा, सवैया, छंदबद्ध कविता—हर विधा में लिखा। उनकी दस से अधिक काव्य कृतियां हैं, जिनमें ‘चंद्रगहना’, ‘उल्लूक’, ‘दिग्पाल’, ‘शब्द’, ‘ताप के ताये हुए दिन’, ‘पितृवंदना’, ‘सफेद कबूतर’, ‘अमृत के द्वीप’ आदि शामिल हैं। 'चंद्रगहना से लौटती बेर' (1950) उनकी पहली कृति थी, जिसने हिंदी आलोचना में तहलका मचाया।
वे सॉनेट के हिंदी में सबसे बड़े हस्ताक्षर माने जाते हैं। उनकी 133 सॉनेटों की श्रृंखला 'तुम्हें सौंपता हूं' हिंदी में इस विधा का शिखर मानी जाती है। उनके पास प्रकृति और प्रेम के साथ-साथ सामाजिक यथार्थ को सॉनेट में ढालने का अद्वितीय कौशल था।
अगर त्रिलोचन को मिले सम्मानों की बात करें तो उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (1982, ‘ताप के ताये हुए दिन’ पर), भारत भारती पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार समेत अनेक सम्मान प्राप्त हुए, पर वे हमेशा सादगी के पुजारी रहे। अंतिम दिनों में हैदराबाद में बेटे के पास रहते थे और वहीं 9 दिसंबर 2007 को 90 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली।
त्रिलोचन चले गए, पर उनकी कविताएं आज भी खेतों में हल चलाते किसान, कारखाने में पसीना बहाते मजदूर, और हर उस इंसान के साथ जीवित हैं जो इस धरती से सच्चा प्रेम करता है।