क्या यमुनाबाई वाईकर ने लावणी सम्राज्ञी के सुरों पर बिरजू महाराज को थिरकने पर मजबूर किया?
सारांश
Key Takeaways
- यमुनाबाई वाईकर ने लावणी को एक नई पहचान दी।
- उन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का ज्ञान प्राप्त किया।
- सामाजिक जागरूकता के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किए।
- उनका जीवन संघर्ष और समर्पण की मिसाल है।
- उन्हें कई महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले।
नई दिल्ली, 30 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। करीब साल 1975 में दिल्ली के एक सभागार में भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक के अद्वितीय कलाकार पंडित बिरजू महाराज मंच पर थे, जबकि दूसरी ओर महाराष्ट्र से आई एक साधारण महिला खड़ी थीं। जैसे ही ढोलकी की थाप पर उस महिला ने गाना शुरू किया, बिरजू महाराज उनके सुरों पर थिरकने लगे। यह कोई साधारण जुगलबंदी नहीं थी; यह लोक कला और शास्त्रीय नृत्य का एक ऐतिहासिक मिलन था जिसने 'लावणी' को बदनाम गलियों से उठाकर सम्मान के शिखर पर पहुँचा दिया। वह महिला और कोई नहीं, बल्कि महाराष्ट्र की प्रसिद्ध लोक कलाकार और लावणी की निर्विवाद सम्राज्ञी यमुनाबाई वाईकर थीं।
31 दिसंबर 1915 को सतारा के एक छोटे से गांव में जन्मी यमुनाबाई का जीवन किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं था। कोल्हाटी समुदाय में जन्मी यमुनाबाई के हिस्से खुशियां कम और जिम्मेदारियां ज्यादा आईं। उनके पिता शराब के आदी थे और घर में तंगहाली का सामना करना पड़ा। मात्र 10 साल की उम्र में, जब बच्चे खेल में व्यस्त होते हैं, यमुनाबाई अपनी मां गीताबाई के साथ सड़कों पर गाकर और नाचकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर रही थीं।
सड़क पर मिलने वाली तालियों और कभी-कभी मिलने वाले तानों ने यमुनाबाई के पहले गुरु का काम किया। यहीं से उन्होंने भीड़ की नब्ज़ पकड़ना और कला को जीने का ढंग सीखा। आगे चलकर यमुनाबाई ने दुनिया के लिए 'यमुनाबाई वाईकर' के नाम से पहचान बनाई।
यमुनाबाई की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने लावणी को केवल 'मसालेदार मनोरंजन' नहीं रहने दिया। उन्होंने बॉम्बे के फकीर मोहम्मद और कोल्हापुर के अख्तरभाई से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखा। नतीजा यह हुआ कि उनकी लावणी में ठुमरी की नजाकत, गजल की गहराई और तराने की रफ्तार घुल गई।
वह पेशवा काल की उस लुप्त होती 'बैठकीची लावणी' की आखिरी कड़ी थीं, जहां कलाकार खड़ा होकर नाचता नहीं, बल्कि बैठकर केवल अपनी आंखों और गले के इशारों से पूरे ब्रह्मांड का शृंगार और विरह बयां कर देता था। उनकी 'यमुना-हीरा-तारा' संगीत पार्टी का डंका पूरे महाराष्ट्र में बजता था।
यमुनाबाई केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि एक विद्रोही भी थीं। उन्होंने उस दौर में लावणी की मर्यादा की लड़ाई लड़ी, जब इस कला को 'अनैतिक' माना जाता था। उन्होंने सिद्ध किया कि लावणी में 'शृंगार' (प्रेम) के साथ-साथ 'निर्गुणी' (अध्यात्म) भी है।
अपनी कला से जो धन उन्होंने कमाया, उससे अपने समुदाय के लिए घर बनवाए। 1972 के भीषण सूखे के दौरान उन्होंने जल संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाई।
उनकी सात दशक लंबी साधना का प्रतिफल उन्हें 2012 में पद्म श्री पुरस्कार के रूप में मिला। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से लेकर टैगोर रत्न तक, शायद ही कोई ऐसा सम्मान बचा हो जो उन्हें न मिला हो।
102 साल की एक लंबी और गौरवशाली पारी खेलकर 15 मई 2018 को यमुनाबाई का निधन हो गया।