क्या जैवलिन थ्रो ओलंपिक के खेल में एक शिकार का तरीका है?
सारांश
Key Takeaways
- जैवलिन थ्रो का इतिहास शिकार से शुरू हुआ।
- यह ओलंपिक खेलों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
- भारत ने इस खेल में कई उपलब्धियाँ हासिल की हैं।
- नीरज चोपड़ा जैसे एथलीटों ने देश का नाम रोशन किया है।
- इस खेल में शक्ति, संतुलन और तकनीक का अनोखा मेल है।
नई दिल्ली, 28 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। आज जैवलिन थ्रो यानी भाला फेंक को एक खेल के रूप में मान्यता प्राप्त है, जबकि इसका उपयोग मध्य पुरापाषाण काल से शिकार के लिए किया जा रहा था।
लगभग 2,00,000 ईसा पूर्व, मानव ने धारदार पत्थर को ब्लेड की भांति आकार देना शुरू किया। इस पत्थर को एक लंबी लकड़ी की छड़ी के साथ जोड़कर एक हथियार के रूप में विकसित किया गया, जिससे जानवरों का शिकार किया जा सके। इसके साथ ही, यह आत्मरक्षा में भी एक महत्वपूर्ण उपकरण था। समय के साथ, इस भाले का प्रयोग युद्ध में भी होने लगा।
708 ईसा पूर्व में ग्रीस में आयोजित प्राचीन ओलंपिक खेलों में पहली बार इस हथियार को एक खेल के रूप में शामिल किया गया, जिसमें जैतून की लकड़ी का भाला प्रयोग किया गया।
ओलंपिया प्राचीन ओलंपिक खेलों का स्थल था, लेकिन कई लड़ाइयों और प्राकृतिक आपदाओं के बाद इसकी स्थिति बिगड़ गई। सम्राट थियोडोसियस प्रथम के निर्णय ने इन खेलों को आधिकारिक तौर पर लगभग 394 ईसवी में समाप्त कर दिया।
1700 के दशक के अंत में, फिनलैंड और स्वीडन में भाला फेंक के दो इवेंट आयोजित हुए। इनमें से एक में भाला लक्ष्य पर फेंकना था, जबकि दूसरे में भाले को अधिकतम दूरी तक फेंकना था। इसमें सबसे लोकप्रिय इवेंट दूर तक फेंकने वाला रहा।
साल 1908 में, जैवलिन थ्रो को पहली बार आधुनिक ओलंपिक खेलों में शामिल किया गया। 1932 में, महिलाओं की जैवलिन थ्रो प्रतियोगिता भी ओलंपिक में शामिल की गई। इस दौरान, भाले की निर्माण सामग्री में भी बदलाव आया, जिससे भाले पहले से हल्के हो गए।
उवे हॉन के नाम 100 मीटर का रिकॉर्ड है, जिन्होंने 1984 में 104.8 मीटर भाला फेंका था। लेकिन 1986 में भाले के डिज़ाइन में परिवर्तन कर दिया गया, जिससे अन्य एथलीट्स के लिए इस रिकॉर्ड को तोड़ना लगभग असंभव हो गया। इसी प्रकार, 1999 में महिलाओं की भाला फेंक प्रतियोगिता में भी ऐसा ही बदलाव हुआ।
1996 के अटलांटा ओलंपिक में, चेक गणराज्य के जान जेलेजनी ने 98.48 मीटर दूर भाला फेंककर विश्व रिकॉर्ड बनाया, जो आज तक नहीं टूटा।
भारत के ओलंपिक सफर में जैवलिन थ्रो की शुरुआत गुरतेज सिंह ने की, जिन्होंने 1984 लॉस एंजेलेस ओलंपिक में देश का नाम रोशन किया। वे क्वालिफिकेशन राउंड में 70.08 मीटर फेंककर ग्रुप-बी में 12वें और कुल मिलाकर 25वें स्थान पर रहे, लेकिन फाइनल के लिए क्वालिफाई नहीं कर सके।
गुरतेज ने 1982 के एशियन गेम्स में 71.58 मीटर की दूरी तय कर ब्रॉन्ज मेडल जीता। वह एशियन गेम्स में मेडल जीतने वाले दूसरे भारतीय जैवलिन थ्रोअर बने। उनसे पहले, 1951 में परसा सिंह ने इसी इवेंट में ब्रॉन्ज जीता था।
2000 के सिडनी ओलंपिक में, जगदीश बिश्नोई ने इस खेल में भारत का प्रतिनिधित्व किया। इसी ओलंपिक में गुरमीत कौर पहली भारतीय महिला जैवलिन थ्रोअर बनीं।
2020 के टोक्यो ओलंपिक में, नीरज चोपड़ा ने इस खेल में भारत को गोल्ड दिलाकर इतिहास रच दिया। इसके बाद, 2024 के पेरिस ओलंपिक में इस स्टार खिलाड़ी ने भारत को सिल्वर मेडल जिताया।
खिलाड़ी की शक्ति, संतुलन, गति और तकनीक का अद्भुत मेल दिखाने वाला यह खेल न केवल शारीरिक क्षमता, बल्कि सटीकता और लय की भी परीक्षा लेता है। आज जैवलिन थ्रो में भारत का परचम बुलंद है। नीरज चोपड़ा जैसे नायकों ने युवाओं को प्रेरित किया है।