क्या 42 साल की उम्र में सर्जन से फिल्मी सितारा बने श्रीराम लागू का सफर प्रेरणादायक है?
सारांश
Key Takeaways
- डॉ. श्रीराम लागू का जीवन साहस और मेहनत का प्रतीक है।
- उन्होंने 42 साल की उम्र में नए करियर की शुरुआत की।
- वे केवल अभिनेता नहीं, बल्कि एक निर्देशक और सामाजिक कार्यकर्ता भी थे।
- उनकी अभिनय ने उन्हें हिंदी और मराठी सिनेमा में पहचान दिलाई।
- वे तनवीर सम्मान के संस्थापक थे।
नई दिल्ली, 16 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। हिंदी सिनेमा के महासागर में कई ऐसे सितारे हैं, जिनकी पहचान बनाने की कहानी किसी प्रेरणा से कम नहीं है। इनमें से एक नाम है डॉ. श्रीराम लागू। यह वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपनी उत्कृष्ट मेडिकल प्रैक्टिस छोड़कर 42 साल की उम्र में फिल्मी जगत में कदम रखा और दर्शकों के दिलों में अपनी एक विशेष पहचान बनाई। डॉक्टर से अभिनेता बनने का यह सफर आसान नहीं था, लेकिन उनकी लगन और जुनून ने उन्हें बॉलीवुड और मराठी सिनेमा दोनों में अमिट छाप छोड़ने का अवसर प्रदान किया।
श्रीराम लागू का जन्म 16 नवंबर 1927 को हुआ। बचपन से ही उनका कला और अभिनय के प्रति झुकाव था, किंतु उन्होंने डॉक्टर बनने का मार्ग चुना। मेडिकल कॉलेज में अध्ययन के दौरान उन्होंने थिएटर में कदम रखा और प्रोग्रेसिव ड्रामेटिक एसोसिएशन से जुड़कर अपने अभिनय की शुरुआत की। इसके पश्चात, मुंबई में ‘रंगायन’ समूह के माध्यम से उन्होंने थिएटर की दुनिया में खुद को और निखारा। थिएटर में उनके कार्य की प्रशंसा इतनी बढ़ी कि अंततः 1969 में उन्होंने मराठी मंच पर पूर्णकालिक अभिनेता के रूप में कदम रखा और वासंत कानेटकर के नाटक ‘इठे ओशलाला मृत्यू’ में अपनी भूमिका से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
मराठी थिएटर में उनका नाम नटसम्राट के पहले नायक के रूप में सदैव याद रखा जाएगा। उनके अभिनय की सहजता और चरित्रों में जान डालने की क्षमता उन्हें अलग बनाती थी, किंतु उनकी कहानी का सबसे रोमांचक मोड़ तब आया जब उन्होंने 42 साल की उम्र में फिल्मों की दुनिया में कदम रखा।
1975 में उन्होंने फिल्मी करियर की शुरुआत की और अगले 20 वर्षों में लगभग 100 हिंदी और मराठी फिल्मों में काम किया। उनका नाम बड़े सितारों के साथ जुड़ा। राजेश खन्ना के साथ मकसद, सौतन, नसीहत, थोड़ी सी बेवफाई, आवाम, तो अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर के साथ देवता, किनारा, सदमा, मुकद्दर का सिकंदर, लावारिस, इंकार, जुर्माना जैसी फिल्मों में उनका योगदान यादगार रहा। उनकी हर भूमिका में एक प्राकृतिक सहजता और किरदार के प्रति ईमानदारी झलकती थी। उन्होंने हिंदी फिल्म घरौंदा के लिए 1978 का फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार जीता।
डॉ. लागू केवल अभिनेता नहीं थे, बल्कि थिएटर निर्देशक और सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उन्होंने 40 से अधिक मराठी, हिंदी और गुजराती नाटकों में अभिनय किया और 20 से ज्यादा मराठी नाटकों का निर्देशन किया। 1999 में उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भाग लिया और उपवास करके समाज में अपनी सक्रिय भूमिका दिखाई।
उनकी पत्नी दीपा लागू भी थिएटर और फिल्मों से जुड़ी हुई हैं। अपने दिवंगत बेटे तनवीर लागू की याद में उन्होंने तनवीर सम्मान की स्थापना की, जो रंगमंच के होनहार कलाकारों को सम्मानित करने के लिए किया गया था। परिवार के प्रति उनकी स्नेहशीलता और समाज के प्रति जिम्मेदारी उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा रही। पुणे में 17 दिसंबर, 2019 को श्रीराम लागू का निधन हो गया।