क्या अलौली सीट पर मुद्दों की भरमार है और दिलचस्प लड़ाई के आसार हैं?

सारांश
Key Takeaways
- अलौली सीट का चुनावी इतिहास दिलचस्प है।
- जातीय समीकरण चुनाव परिणामों को प्रभावित करते हैं।
- विकास की कमी यहाँ की सबसे बड़ी चुनौती है।
- पलायन एक गंभीर समस्या है।
- यह क्षेत्र राजनीतिक प्रयोगशाला के रूप में जाना जाता है।
पटना, 1 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। बिहार के खगड़िया जिले की अलौली (सुरक्षित) विधानसभा सीट ने सूबे की राजनीति में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। यह निर्वाचन क्षेत्र, जिसे 1962 में स्थापित किया गया, हमेशा चर्चा का विषय रहा है। यहाँ के जातीय समीकरणों के साथ-साथ भौगोलिक और सामाजिक मुद्दे इसे और भी महत्वपूर्ण बनाते हैं।
इस विधानसभा क्षेत्र का चुनावी इतिहास बहुत दिलचस्प है। कांग्रेस ने 1962, 1967, 1972 और 1980 में यहाँ जीत हासिल की। लेकिन समाजवादी विचारधारा वाले दलों ने यहाँ 11 बार जीत दर्ज की है। जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने 2-2 बार जीत हासिल की है, जबकि संयुक्त समाजवादी पार्टी, जनता पार्टी और लोकदल ने 1-1 बार विजय प्राप्त की है।
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में राजद के रामवृक्ष सदा ने जेडीयू की साधना देवी को मात्र 2,773 वोटों से हराया था। वहीं 2015 में महागठबंधन के तहत राजद-जेडीयू ने लोजपा के पशुपति पारस को हराया था। 2020 में चिराग पासवान के नेतृत्व में लोजपा के एनडीए से अलग होने के कारण वोटों का बिखराव हुआ, जिसका लाभ राजद के उम्मीदवार को मिला।
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में यहाँ कुल 2,52,891 मतदाता थे, जो अब बढ़कर 2,67,640 हो गए हैं। इनमें अनुसूचित जाति (एससी) के मतदाताओं की हिस्सेदारी 25.39 प्रतिशत और मुस्लिम मतदाताओं की हिस्सेदारी 7.6 प्रतिशत है। क्षेत्र की जनसांख्यिकीय और जातीय संरचना इसे एक रोचक राजनीतिक प्रयोगशाला बनाती है, जहाँ हर समुदाय का चुनावी परिणामों पर प्रभाव पड़ता है।
अलौली विधानसभा क्षेत्र में सबसे बड़ी जातीय आबादी सदा (मुसहर) समुदाय की है, जिसकी संख्या लगभग 65,000 है। यह समुदाय अनुसूचित जाति में आता है और चुनावी परिणामों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके बाद यादव समुदाय की आबादी लगभग 45,000 है, जो सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली मानी जाती है। मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 15,000 है, जो अल्पसंख्यक वोटों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
कोयरी और कुर्मी समुदाय की कुल संख्या 35,000 है, जिनका राजनीतिक प्रभाव भी है। यह समुदाय संगठित और शिक्षित होने के कारण राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, पासवान समुदाय की आबादी 10,000, राम समुदाय की 6,000, और मल्लाह समुदाय की 12,000 है। अगड़ी जातियों (सवर्ण) की संख्या 8,000 और अन्य समुदायों (अन्य पिछड़ा वर्ग, सामान्य आदि) की संख्या 70,000 है। इस प्रकार का जातीय समीकरण अलौली को एक ऐसा निर्वाचन क्षेत्र बनाता है, जहाँ कोई भी राजनीतिक दल किसी एक समुदाय पर पूरी तरह निर्भर नहीं रह सकता।
अलौली की राजनीतिक भूमि ने देश के प्रमुख दलित नेता रामविलास पासवान को 1969 में संयुक्त समाजवादी पार्टी के टिकट पर पहली बार बिहार विधानसभा में जगह दी थी। उन्होंने कांग्रेस के नेता मिश्री सदा को हराकर सुर्खियाँ बटोरी थीं।
अलौली एक दूरदराज का ग्रामीण क्षेत्र है, जो विकास की बुनियादी आवश्यकताओं में पीछे है। आजादी के सात दशक बाद भी यह क्षेत्र बुनियादी सुविधाओं जैसे सड़क, बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है। यह क्षेत्र बाढ़ और कटाव के खतरे में रहता है, जिससे आधी से अधिक कृषि योग्य भूमि जलमग्न रहती है। रोजगार के अभाव में पलायन एक गंभीर मुद्दा है, जिसके कारण युवा आबादी को बाहर जाना पड़ता है।
अलौली की सबसे बड़ी चुनौती है बुनियादी ढांचे का अभाव और प्राकृतिक आपदाएँ। बाढ़ और कटाव से निपटने के लिए दीर्घकालिक योजनाओं की आवश्यकता है। इसके अलावा, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों को बढ़ाना आवश्यक है ताकि पलायन को रोका जा सके।