क्या अरावली क्षेत्र में खनन किए जाने से गंभीर परिणाम होंगे: जमाअत-ए-इस्लामी हिंद?
सारांश
Key Takeaways
- अरावली पर्वतमाला का संरक्षण आवश्यक है।
- खनन गतिविधियों से पर्यावरण को गंभीर नुकसान हो सकता है।
- सरकार को पारिस्थितिकी विशेषज्ञों की सलाह पर ध्यान देना चाहिए।
- भूजल पुनर्भरण और जलवायु नियमन में अरावली की भूमिका महत्वपूर्ण है।
- सिर्फ घोषणाएं पर्याप्त नहीं हैं, आवश्यक नीतियों की आवश्यकता है।
नई दिल्ली, 25 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। जमाअत-ए-इस्लामी हिंद (जेआईएच) के उपाध्यक्ष प्रो. सलीम इंजीनियर ने अरावली पर्वतमाला के संरक्षण से संबंधित हालिया घटनाओं पर गहरी चिंता जताई है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अस्पष्ट और गलत नीतिगत निर्णय राजस्थान, दिल्ली-एनसीआर और उत्तरी भारत के बड़े हिस्सों के लिए गंभीर खतरे उत्पन्न कर सकते हैं।
मीडिया को जारी एक बयान में प्रो. सलीम इंजीनियर ने कहा कि अरावली पर्वतमाला सीमित और अत्यधिक तकनीकी व्याख्याओं के कारण गंभीर पारिस्थितिक संकट का सामना कर रही है। इन सीमित परिभाषाओं के कारण अरावली पहाड़ियों के बड़े हिस्से कानूनी संरक्षण से बाहर हो गए हैं।
उन्होंने कहा कि केवल 100 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली भू-आकृतियों के आधार पर अरावली को परिभाषित करना उसकी पारिस्थितिक निरंतरता की अनदेखी करता है और खनन और व्यावसायिक दोहन को बढ़ावा देगा।
उन्होंने कहा कि अरावली एक जीवंत पारिस्थितिक तंत्र है। इसका भूजल पुनर्भरण, जलवायु नियमन और मरुस्थलीकरण की रोकथाम में महत्वपूर्ण योगदान है।
जेआईएच के उपाध्यक्ष ने चेतावनी दी कि यदि अरावली क्षेत्र में खनन गतिविधियों का विस्तार किया गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। इससे भूजल का तीव्र क्षरण होगा, कुएं और पारंपरिक जलस्रोत सूखेंगे, धूल प्रदूषण बढ़ेगा, और राजस्थान, हरियाणा, गुजरात तथा दिल्ली-एनसीआर में जनस्वास्थ्य की स्थिति और खराब होगी। उन्होंने कहा कि इस पारिस्थितिक क्षति का सबसे बड़ा भार किसान, पशुपालक समुदाय और ग्रामीण आबादी को उठाना पड़ेगा।
प्रो. सलीम इंजीनियर ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा हाल ही में नए खनन पट्टों पर प्रतिबंध और अतिरिक्त संरक्षित क्षेत्रों की पहचान को लेकर दिए गए आश्वासन पर भी आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि भले ही आधिकारिक वक्तव्यों में संरक्षण की बात की जा रही हो, लेकिन अरावली की पुनर्परिभाषा का मूल मुद्दा, जिसे कई विशेषज्ञ संस्थाओं ने खारिज किया है, अब भी अनसुलझा है।
उन्होंने कहा कि केवल घोषणाएं पर्याप्त नहीं हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए विज्ञान-आधारित नीतियां, पारदर्शिता और न्यायिक व विशेषज्ञ सलाह का सम्मान आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि विपक्षी दलों और पर्यावरण विशेषज्ञों ने बिल्कुल सही सवाल उठाया है कि क्या सरकार के कदम नई परिभाषा से उत्पन्न खतरे का वास्तव में समाधान करते हैं या नहीं।
प्रो. इंजीनियर ने कहा कि वैधानिक निकायों और पारिस्थितिकी विशेषज्ञों की चिंताओं की अनदेखी करने से सुरक्षा उपाय कमजोर पड़ते हैं और जनविश्वास को ठेस पहुंचती है।