क्या भारतीय रंगमंच की वह नर्तकी हर मुद्रा और हर भाव में कहानी बयां करती थीं?
सारांश
Key Takeaways
- शांता राव भारतीय शास्त्रीय नृत्य की एक अद्वितीय हस्ती थीं।
- उन्होंने कई शास्त्रीय नृत्य शैलियों में महारत हासिल की।
- उनकी कला ने भारतीय संस्कृति को जीवंत किया।
- उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
- उनका योगदान आज भी नृत्य प्रेमियों के दिलों में जीवित है।
नई दिल्ली, 27 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय रंगमंच की एक ऐसी प्रभावशाली नर्तकी हैं, जिनके मंच पर आते ही ऐसा लगता है जैसे समय थम गया हो। उनकी हर मुद्रा एक कहानी कहती है, हर नजर में भावों का समुद्र है, और हर घुमाव में संस्कृति की मिठास झलकती है। नृत्य केवल शरीर की कला नहीं, बल्कि आत्मा की अभिव्यक्ति है, और उनके हर प्रदर्शन में यह स्पष्ट दिखाई देता था। भरतनाट्यम की सटीक मुद्राओं से लेकर कथकली की शक्ति और कुचिपुड़ी की सहजता तक, उनका हर नृत्य दर्शकों के दिलों में गहराई से उतर जाता था।
यह कोई और नहीं, बल्कि शांता राव थीं, जो भारत की एक प्रसिद्ध और प्रभावशाली शास्त्रीय नृत्यांगना थीं, जिन्होंने भरतनाट्यम, कथकली और कुचिपुड़ी में महारत हासिल की थी। उन्हें उनकी अद्भुत भावुकता, मौलिकता और कला के प्रति गहन समर्पण के लिए जाना जाता था। उन्होंने गुरु मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई से भरतनाट्यम सीखा और कथकली व कुचिपुड़ी का भी गहन अध्ययन किया। उनके नृत्य की तकनीक इतनी निपुण थी कि वे परंपरा और नवाचार दोनों को संतुलित रूप से प्रस्तुत कर सकीं। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय नृत्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया और इसे हर दर्शक के लिए जीवंत अनुभव बना दिया।
उनकी प्रतिभा को कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित किया गया। 1970 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1971 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री, और 1993-94 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा कालिदास सम्मान मिला। ये सभी पुरस्कार केवल उनकी तकनीकी दक्षता के लिए नहीं, बल्कि उनके भावपूर्ण प्रदर्शन, रचनात्मकता और शास्त्रीय नृत्य को सशक्त बनाने के उनके योगदान के लिए दिए गए।
उनका व्यक्तित्व और जीवनशैली भी उतनी ही खास थी जितना उनका नृत्य। उस समय की अधिकांश नर्तकियों की तुलना में शांता का रूप-रंग और शारीरिक बनावट कुछ मजबूत और साहसी थी, जो उन्हें कथकली जैसे पुरुष प्रधान नृत्य में सहजता से महारत हासिल करने में मदद करती थी। वे गहरी बुद्धि वाली, उमंग से भरी और एकांतप्रिय थीं। जीवन के प्रति उनकी गंभीरता और उत्साह का अद्भुत मिश्रण उनके हर प्रदर्शन में झलकता था। मंच पर उनका आत्मविश्वास और ऊर्जा दर्शकों को प्रभावित करती थी, और यही वजह थी कि हर प्रस्तुति एक यादगार अनुभव बन जाती थी। मुंबई और बेंगलुरु में उन्होंने अपने कला जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव तय किए और मैंगलोर में जन्म लेने वाली यह नर्तकी भारतीय कला जगत में एक स्थायी छाप छोड़ गई।
उनकी कला केवल तकनीक और भावनाओं तक सीमित नहीं थी। उन्होंने शास्त्रीय नृत्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति और कहानियों को जीवंत किया। मंच पर हर कदम और हर मुद्रा दर्शकों को भावनाओं के गहरे अनुभव में ले जाती थी। 28 दिसंबर 2007 को मल्लेश्वरम, बैंगलोर में उनका निधन हो गया, लेकिन उनके योगदान और अद्भुत नृत्य का जादू आज भी भारतीय शास्त्रीय कला प्रेमियों के दिलों में जीवित है।