क्या बॉबी के 52 साल: कर्ज, टूटे सपने और एक किशोर संवाद ने हिंदी सिनेमा की प्रेमकथा को गढ़ा?

सारांश
Key Takeaways
- राज कपूर के संघर्षों से प्रेरणा लें।
- 'बॉबी' ने किशोर प्रेम का नया रूप पेश किया।
- फैशन और संगीत ने फिल्म को आकर्षक बनाया।
- कर्ज और मायूसी के बावजूद, सपनों को नहीं छोड़ना चाहिए।
- सिनेमा ने समाज में बदलाव लाने की क्षमता रखता है।
नई दिल्ली, 27 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। राज कपूर का सबसे महत्वाकांक्षी सपना अब चूर-चूर हो चुका था। 'मेरा नाम जोकर' ने जिन उम्मीदों का पहाड़ खड़ा किया था, वह चारों खाने चित्त गिर गई। द ग्रेट शो मैन भारी कर्ज में डूब गए थे और उन्हें अपना घर और आर.के. स्टूडियो गिरवी रखना पड़ा। कर्ज के बोझ, गहरी मायूसी और डिप्रेशन में उन्होंने अपनी पसंदीदा शगल का सहारा लिया।
यह एक कॉमिक बुक थी, जिसका नाम था आर्ची। इसे पढ़ते-पढ़ते उनकी नजर एक संवाद पर अटक गई, “सत्रह साल कोई छोटी उम्र नहीं होती, हमारी भी अपनी जिंदगी है, और हमें इसका अहसास है।” इसके बाद जो हुआ, उसने रिवायतों को दरकिनार करते हुए नई मिसाल कायम की।
इस पूरे किस्से का जिक्र केए अब्बास की किताब बॉबी-द कंप्लीट स्टोरी में मिलता है। यह एक ऐसी फिल्म थी जिसने सिनेमा की दिशा और दशा बदल दी। एक किताब तो लिखी जानी ही चाहिए थी, खासकर उस शख्स के हाथों जो उस इतिहास का हिस्सा रहा हो!
आर्ची कॉमिक्स के एक वाक्य '17 कोई उम्र नहीं होती' ने राज कपूर को भीतर तक झकझोर दिया। उन्होंने कार उठाई और सीधे जुहू में अपने भरोसेमंद लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास के दफ्तर पहुंचे। रास्ते में अब्बास साहब के साथी वी.पी. साठे भी उनके साथ हो लिए। डियोनार से जुहू की उस यात्रा में राज कपूर ने पूरा सीन दिमाग में गढ़ लिया था। उन्होंने अपने बेटे चिंटू (ऋषि कपूर) को हीरो के किरदार में लेने का फैसला किया।
1972 की वह दोपहर एक मीठी याद बनकर सबके दिलों में बस गई। कपूर, अब्बास और साठे ने मिलकर बॉबी का बीज बोया। किशोर प्रेम पर आधारित इस फिल्म ने मासूमियत, सादगी और बेमिसाल संगीत के साथ एक पूरी पीढ़ी को छू लिया।
28 सितंबर 1973 को जब 'बॉबी' रिलीज हुई, तो यह एक मिसाल बन गई। सत्तर के दशक की शुरुआत जोरदार थी। भारतीय सिनेमा का इकबाल बुलंद था। राजेश खन्ना ने 15 हिट्स देकर रोमांटिक हीरो के तौर पर धमाल मचाया था, और देव आनंद की 'हरे राम हरे कृष्णा' (1971) ने हिप्पी और नशे की संस्कृति को बखूबी दिखाया था। इसी बीच प्रकाश मेहरा की 'जंजीर' (1973) ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को 'एंग्री यंग मैन' से रूबरू कराया था।
ऐसे ही दौर में राज कपूर ने किशोर उम्र की मासूम बगावत पर 'बॉबी' पेश की, जहां ऋषि कपूर युवा पीढ़ी के सपनों का चेहरा बन गए। फिल्म में परंपराओं को तोड़ते हुए राज कपूर ने चौदह साल की किशोरी डिंपल कपाड़िया को मॉडर्न लुक दिया। आर्ची कॉमिक्स के किरदारों की तरह शॉर्ट्स, स्विमसूट, मैक्सी गाउन, पोल्का डॉट्स और बेल-बॉटम्स का जोर रहा। ऋषि कपूर का अंदाज भी एक झटके में बदल गया। फटी जीन्स, बुशशर्ट और पुलओवर युवाओं का स्टाइल स्टेटमेंट बन गए।
इस फिल्म ने कई नैरेटिव बदल दिए। किशोर प्रेम, नए एक्टर्स, युवा पीढ़ी की बगावत, फैशन, म्यूजिक और बोल्डनेस ने युवाओं को खूब आकर्षित किया और यहीं से हिंदी सिनेमा में टीनएज रोमांस का दौर शुरू हुआ।