क्या ज्ञान चतुर्वेदी की रचनाएं व्यंग्य के जरिए समाज की नब्ज टटोलती हैं?

सारांश
Key Takeaways
- व्यंग्य समाज की समस्याओं को उजागर करता है।
- ज्ञान चतुर्वेदी का लेखन सोचने पर मजबूर करता है।
- उनकी रचनाएं हास्य और आलोचना का मिश्रण हैं।
- चिकित्सा और साहित्य में उनका योगदान अविश्रांत है।
- उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा गया है।
नई दिल्ली, 1 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। 'मूर्खता बहुत चिंतन नहीं मांगती। थोड़ा-सा कर लो, यही बहुत है। न भी करो तो चलता है। तो फिर मैं क्यों कर रहा हूं?' - यह पंक्ति डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य की वह गहराई दर्शाती है, जो हंसाते हुए समाज की नब्ज पर गहरी चोट करती है। उनके शब्दों में छिपा व्यंग्य समाज के सामने एक आईना रखता है।
2 अगस्त, 1952 को उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के मऊरानीपुर में जन्मे ज्ञान चतुर्वेदी एक ऐसे साहित्यकार और चिकित्सक हैं, जिन्होंने हृदयरोग विशेषज्ञ के रूप में मरीजों का इलाज किया। साथ ही, अपने तीखे व्यंग्य से समाज की कुरीतियों को उजागर किया।
'बारामासी' और 'नरक-यात्रा' जैसे उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने हिंदी साहित्य में सामाजिक विसंगतियों को हास्य और आलोचना के अनूठे मिश्रण से पेश किया। 2015 में पद्मश्री से सम्मानित इस रचनाकार का लेखन न केवल मनोरंजन करता है, बल्कि गहरे चिंतन के लिए भी प्रेरित करता है।
ज्ञान चतुर्वेदी का जन्म एक साहित्यिक और चिकित्सकीय परिवार में हुआ। उनके पिता चिकित्सक थे और उनके नाना ओरछा के राजकवि थे। परिवार में कवि गोष्ठियों का आयोजन होता था, जहां मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवि आया करते थे। इस माहौल ने उनके साहित्यिक संस्कारों को निखारने का काम किया। उन्होंने रीवा के एस.एस. मेडिकल कॉलेज से चिकित्सा की डिग्री हासिल की और बाद में कार्डियोलॉजी में विशेष प्रशिक्षण भी लिया।
बताया जाता है कि सातवीं कक्षा में उन्होंने 'पंचवटी' पढ़ी थी और उससे प्रेरणा लेकर उन्होंने बावन छंदों का खंडकाव्य लिख दिया। इस तरह उनके लेखन की शुरुआत हुई। इतना ही नहीं, 11वीं कक्षा में जब वह थे तो उन्होंने जासूसी से जुड़ा उपन्यास भी लिखा। 1965 में उन्होंने हरिशंकर परसाई को पहली बार पढ़ा और इतने प्रभावित हुए कि तय कर लिया कि व्यंग्य-विधा को ही अपनाना है। उन्हीं दिनों शेखर जोशी और श्रीलाल शुक्ल के लेखन से भी वह अवगत हुए और उनसे प्रेरणा ली।
चिकित्सा से जुड़े अनुभवों ने उनकी लेखनी को गहराई देने का काम किया। उनका उपन्यास 'नरक-यात्रा' भारतीय चिकित्सा शिक्षा और व्यवस्था की कमियों पर तीखा व्यंग्य है। ज्ञान चतुर्वेदी ने 'नरक-यात्रा', 'बारामासी', 'मरीचिका', और 'हम न मरब' जैसे उपन्यास भी लिखे। इनमें 'बारामासी' के लिए 2002 में यूके कथा सम्मान और 'नरक-यात्रा' के लिए खूब सराहना मिली।
उनकी रचनाएं तीखे व्यंग्य, हास्य, और सामाजिक आलोचना का अनूठा मिश्रण हैं। वे जटिल मुद्दों को सरल और रोचक ढंग से पेश करते हैं। साहित्य और चिकित्सा में योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से भी नवाजा गया। उन्हें 2015 में पद्मश्री, 2002 में यूके कथा सम्मान, और 2004 में राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान से नवाजा गया।
ज्ञान चतुर्वेदी का जीवन और कार्य चिकित्सा तथा साहित्य के बीच एक अनूठा सेतु है। उनकी रचनाएं समाज को एक अलग नजरिए से देखने की प्रेरणा देती हैं, जबकि उनकी चिकित्सकीय सेवाएं मानवता के प्रति उनके समर्पण को दर्शाती हैं। वे एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने दोनों क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ी।