क्या कपालेश्वर मंदिर में मां पार्वती मोर बनी थी? तप का अद्भुत स्थल
सारांश
Key Takeaways
- कपालेश्वर मंदिर मां पार्वती और भगवान शिव के प्रेम का प्रतीक है।
- यह मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों के बाद सबसे पवित्र माना जाता है।
- मंदिर में चारों वेदों की पूजा होती है।
- मंदिर का पुनर्निर्माण 16वीं शताब्दी में विजयनगर राजाओं द्वारा किया गया था।
नई दिल्ली, 15 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। भारत की पवित्र भूमि पर अनेकों महापुरुषों और ज्ञानी व्यक्तियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है और उन्होंने देश के विभिन्न कोनों को भक्ति और आस्था से परिपूर्ण किया है।
चेन्नई भी ऐसे ही नगरों में से एक है, जहाँ भारत की संस्कृति और आध्यात्मिकता का अनूठा संगम देखने को मिलता है। चेन्नई के विभिन्न स्थानों पर हिंदू देवी-देवताओं के प्राचीन मंदिर विराजमान हैं, लेकिन कपालेश्वर मंदिर, जो मायलापुर में स्थित है, मां पार्वती और भगवान शिव के प्रेम और तपस्या का प्रतीक है।
कपालेश्वर मंदिर को 12 ज्योतिर्लिंगों के बाद सबसे पवित्र मंदिर का दर्जा प्राप्त है। यह मंदिर विशेष रूप से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ चारों वेदों की पूजा होती है। इसे वेदपुरी के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के इतिहास में महान ऋषि और मां पार्वती के मोर बनने की पुराणिक कथा का उल्लेख किया गया है। ऋषि शुक्राचार्य ने भगवान शिव की तपस्या कर अपनी आँखों की रोशनी पुनः पाने की प्रार्थना की थी।
दूसरी ओर, मां पार्वती एक श्राप के कारण मोर बन गईं थीं। अपने श्राप से मुक्ति पाने और अपने असली रूप को पुनः प्राप्त करने के लिए, मां पार्वती ने इसी स्थान पर भगवान शिव की उपासना की थी और अपने वास्तविक स्वरूप को पाया। इसलिए, इस मंदिर को मां पार्वती के तप और भगवान शिव के तप का प्रतीक माना जाता है। यहाँ भगवान शिव को कपालेश्वरर और मां पार्वती को कर्पगंबल के रूप में पूजा जाता है। इस मंदिर में 63 नयनारों की स्तुति रत मूर्तियाँ भी हैं, जो शिव भक्ति का प्रदर्शन करती हैं।
मंदिर की सीढ़ियाँ उतरने पर सामने बहती गोदावरी नदी नजर आती है। इसी नदी में प्रसिद्ध रामकुंड है, जहाँ भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ का श्राद्ध किया था। मंदिर का निर्माण 7वीं शताब्दी में हुआ था, जिसे उस समय के पल्लव वंश के राजाओं ने बनवाया था। मंदिर की वास्तुकला द्रविड़ शैली की है, जिसमें रंग-बिरंगी देवी-देवताओं की नृत्य करती प्रतिमाएँ उकेरी गई हैं। दुर्भाग्यवश, पुर्तगाली खोजकर्ताओं ने मंदिर को नष्ट करने का प्रयास किया था, लेकिन लगभग 16वीं शताब्दी में विजयनगर के राजाओं ने इसका पुनर्निर्माण कराया।