क्या केसरबाई केरकर ने हिंदुस्तानी संगीत की अमर आवाज बनकर रवींद्रनाथ टैगोर को प्रभावित किया?
 
                                सारांश
Key Takeaways
- जयपुर घराना की अनूठी राग प्रस्तुति
- देवदासी परंपरा को छोड़कर सम्मानित गायिका बनीं
- पहली गायिका जिनका गीत अंतरिक्ष में भेजा गया
- रवींद्रनाथ टैगोर से मिली 'सुरश्री' की उपाधि
- 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित
नई दिल्ली, 15 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। हिंदुस्तानी संगीत में 'जयपुर घराना' अपनी शानदार राग प्रस्तुति के लिए प्रसिद्ध है, जहाँ स्वर और लय का अनोखा तालमेल सुनने वालों को इसकी गहराई में खो जाने पर मजबूर कर देता है। इस शैली में प्रख्यात गायिका केसरबाई केरकर ने अपनी अद्वितीय गायकी से सबको मंत्रमुग्ध किया। 20वीं सदी की शुरुआत में उन्होंने देवदासी परंपरा को छोड़कर एक सम्मानित कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाई। उन्होंने 'जयपुर घराने' की कला को सरलता और सुंदरता से प्रस्तुत किया, जिसने उन्हें 'राग की रानी' (सुरश्री) बना दिया।
संस्कृति मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, शास्त्रीय गायिका केसरबाई केरकर भारत की पहली गायिका हैं, जिनके गाए गीत 'जात कहां हो...' को अंतरिक्ष में भेजा गया।
केसरबाई की आवाज में रिकॉर्ड किए गए गीत 'जात कहां हो' को अंतरिक्ष यान वायजर-1 और वायजर-2 के माध्यम से 1977 में अंतरिक्ष में प्रक्षिप्त किया गया। नासा द्वारा भेजे गए वायजर-1 अंतरिक्ष यान में 12 इंच की सोने की परत चढ़ी तांबे की डिस्क है, जिसमें संगीतकार बीथोवेन, योहान सेबास्तियन बाख और मोजार्ट के गाने दर्ज हैं। इसे 'द साउंड्स ऑफ अर्थ' एल्बम कहा गया था।
13 जुलाई, 1892 को जन्मी केसरबाई केरकर ने कम उम्र में ही संगीत सीखना प्रारंभ किया। जब उनका परिवार कोल्हापुर में स्थानांतरित हुआ तब उनकी उम्र केवल 10 साल थी और उसी दौरान उन्होंने उस्ताद अब्दुल करीम खान से संगीत की शिक्षा लेना शुरू किया। बाद में, उन्होंने पंडित वाजेबुआ, उस्ताद बरकतुल्लाह खान (बीन वादक) और पंडित भास्करबुवा बखले से भी संगीत सीखा।
वह 1921 में जयपुर-अतरौली घराने के संस्थापक उस्ताद अल्लादिया खान की शिष्या बनीं और लगभग 11 वर्षों तक शास्त्रीय संगीत की प्रशिक्षण लिया। 1930 में उन्होंने पहली बार गायकी में कदम रखा और जब तक अल्लादिया खान जीवित रहे, केसरबाई केरकर उनसे संगीत की शिक्षा लेती रहीं।
उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि वह बरकतुल्लाह खान से सीखे मिया मल्हार को गाने में असमर्थ रहीं। संयोगवश, केसरबाई को सिखाने के लिए बरकतुल्लाह को राजी करने वाले शहर के प्रसिद्ध दर्शक ने उनके प्रदर्शन की सार्वजनिक रूप से आलोचना की। इस असफलता और अपमान ने उन्हें निरंतर प्रशिक्षण लेने के लिए प्रेरित किया।
उस्ताद अल्लादिया खान की शिष्या के रूप में उन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में अपनी अनूठी शैली विकसित की, जिसमें स्वरों की गहन समझ, लय की जटिलता और अप्रचलित रागों का मास्टरयूज शामिल था। उनकी गायकी को नोबेल पुरस्काररवींद्रनाथ टैगोर ने भी बेहद पसंद किया। कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने 1938 में उनकी मधुर गायिकी सुनने के बाद उन्हें 'सुरश्री' की उपाधि से सम्मानित किया। टैगोर ने 'राग की रानी' के रूप में उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा, 'मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे केसरबाई की गायिकी सुनने का मौका मिला।'
1969 में केसरबाई को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया और वह 20वीं सदी की सबसे प्रभावशाली गायिकाओं में से एक मानी जाती हैं। केसरबाई का निधन 16 सितंबर 1977 को मुंबई में हुआ। वे एक संवेदनशील और सख्त कलाकार थीं, जिन्होंने अपनी कला के प्रति पूरी तरह समर्पित रहीं।
 
                     
                                             
                                             
                                             
                                             
                             
                             
                             
                            