क्या खुदीराम बोस ने ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देकर शहादत दी?
सारांश
Key Takeaways
- खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को हुआ था।
- उन्होंने 18 वर्ष की आयु में शहादत दी।
- उनकी शहादत ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- वे ब्रिटिश राज के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थे।
- उनकी निर्भीकता ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया।
नई दिल्ली, 2 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। वर्ष 1908, 11 अगस्त, सुबह के ठीक 6:00 बजे, मुजफ्फरपुर जेल के बाहर हजारों लोगों की भीड़ इकट्ठा थी। हर दिल में एक प्रश्न था: क्या सच में एक किशोर हंसते-हंसते मृत्यु को गले लगाएगा? फांसी के तख्ते की ओर बढ़ते हुए, उस अठारह वर्षीय लड़के के चेहरे पर भय की कोई छाया नहीं थी। उसके होंठों पर एक शांत, अविचलित मुस्कान थी और हाथ में थी श्रीमद्भगवद्गीता.
खुदीराम बोस, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की इतिहास में सबसे युवा पहचान है, जिसने केवल 18 वर्ष, 8 महीने की उम्र में ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्रांति की मशाल बनकर उभरे। उनका जीवन एक व्यक्तिगत त्रासदी से आरंभ हुआ, लेकिन एक ऐसी शहादत पर समाप्त हुआ, जिसने पूरे देश में क्रांति की लहर पैदा कर दी।
खुदीराम का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल प्रेसीडेंसी के मिदनापुर में हुआ। उनके माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया, और उनका पालन-पोषण बड़ी बहन ने किया। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जिसे नियति ने दी, उन्हें पारंपरिक बंधनों से मुक्त करके क्रांति के मार्ग पर ले आई।
1905 में, लॉर्ड कर्जन द्वारा किए गए बंगाल विभाजन ने देश की आत्मा को झकझोर दिया। इस विभाजन ने भारतीय राष्ट्रीयता को नरमपंथी विचारधारा से हटाकर सशस्त्र प्रतिरोध और उग्र राष्ट्रवाद की ओर मोड़ दिया। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का 'वन्दे मातरम' का पवित्र उद्घोष खुदीराम जैसे किशोरों में उत्साह भरने लगा।
मिदनापुर कॉलेजिएट स्कूल में पढ़ाई के दौरान, वे अपने राजनीतिक गुरु सत्येंद्र नाथ बोस के संपर्क में आए। उनके मार्गदर्शन में खुदीराम ने औपचारिक शिक्षा छोड़कर, ब्रिटिश राज को उखाड़ने का संकल्प लिया और गुप्त चरमपंथी समितियों में शामिल हो गए, विशेषकर जुगान्तर और अनुशीलन समिति से।
खुदीराम की सक्रियता केवल सार्वजनिक विरोध तक सीमित नहीं रही। मात्र 15 वर्ष की आयु में, उन्हें ब्रिटिश विरोधी पर्चे बांटने के आरोप में गिरफ्तार किया गया, लेकिन उनकी नौजवानी के कारण रिहा कर दिया गया। यह रिहाई ब्रिटिश राज की सबसे बड़ी गलती साबित हुई। रिहा होने के बाद, उनका उत्साह और भी बढ़ गया। उन्होंने रिवोल्यूशनरी पार्टी की सदस्यता ग्रहण की, बम बनाने का प्रशिक्षण लिया और अब उनका ध्यान 'प्रचार' से हटकर 'लक्षित प्रतिशोध' की ओर केंद्रित हो गया।
1907 में गवर्नर के प्रशिक्षु पर बम हमला हो या फिर 1908 में दो अन्य ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या की कोशिश, खुदीराम की निर्भीकता हर कदम पर साबित हुई।
क्रांतिकारियों की नज़र में कलकत्ता का प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट डगलस एच किंग्सफोर्ड था। किंग्सफोर्ड स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात था। क्रांतिकारियों के गुस्से को शांत करने के लिए किंग्सफोर्ड को कलकत्ता से बिहार के मुजफ्फरपुर स्थानांतरित किया गया, लेकिन जुगान्तर समूह ने उसे खत्म करने का निर्णय लिया। इस मिशन की जिम्मेदारी खुदीराम बोस और उनके साथी प्रफुल्ल चाकी को सौंपी गई।
30 अप्रैल 1908 की शाम, मुजफ्फरपुर में यूरोपियन क्लब के पास, दोनों क्रांतिकारी गुप्त रूप से छिपे थे। शाम लगभग 7:30 बजे, किंग्सफोर्ड की दो गाड़ियाँ क्लब से बाहर निकलीं। भ्रम की स्थिति में, खुदीराम ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंका।
लेकिन, नियति को कुछ और ही मंजूर था। वह गाड़ी बैरिस्टर प्रिंगल कैनेडी की थी, जो स्वतंत्रता संग्राम के प्रति सहानुभूति रखते थे। धमाके में कैनेडी की पत्नी और बेटी की मौके पर ही मृत्यु हो गई, जबकि क्रूर किंग्सफोर्ड बाल-बाल बच निकला।
इस घटना ने पूरे देश में सनसनी फैला दी। ब्रिटिश दमनचक्र तेजी से बढ़ा। भाग-दौड़ के दौरान, प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस के हाथों पकड़े जाने से पहले अपनी पिस्तौल से खुद को गोली मारकर शहादत को चुना।
दूसरी ओर, खुदीराम बोस अगले दिन 25 किलोमीटर पैदल चलकर वैनी रेलवे स्टेशन पहुंचे, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 13 जून को, खुदीराम बोस को प्राण दंड की सजा सुनाई गई। अदालत में मौजूद हर व्यक्ति की आँखें नम थीं, सिवाय खुदीराम के। उनके चेहरे पर वही शांत मुस्कान थी।
जब न्यायाधीश ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें सजा समझ आई है, तो उन्होंने निर्भीकता से उत्तर दिया, "अगर आप मुझे थोड़ा और समय दें, तो मैं आपको भी बम बनाना सिखा दूंगा।" यह ब्रिटिश सत्ता के प्रति उनका तिरस्कार था, एक ऐसा बयान जो जेल की दीवारों से बाहर निकलकर क्रांति का नया उद्घोष बन गया।
खुदीराम की ओर से दायर अपील खारिज कर दी गई और 11 अगस्त 1908 को, उन्हें फांसी दे दी गई। वे हाथ में गीता लेकर, हंसते-हंसते तख्ते पर चढ़ गए। उनका बलिदान एक व्यक्तिगत कृत्य से कहीं अधिक बड़ा, एक राजनीतिक कार्य था, जिसने आने वाली पीढ़ियों के लिए निडरता का मानक स्थापित किया।
उनकी शहादत के बाद, उनकी लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई। बंगाल के बुनकरों ने उनका नाम लिखकर 'खुदीराम धोती' बनाना शुरू कर दिया, जिसे छात्र गर्व से पहनते थे। कवि पीतांबर दास का लिखा गीत, "एक बार विदाई दो मां, मैं घर आता हूं", आज भी बंगाल के घरों में गूंजता है। मुंशी प्रेमचंद जैसे साहित्यकार भी उनके चित्र को सम्मानपूर्वक अपने अध्ययन कक्ष की दीवार पर लगाते थे।