क्या कुलदीप नैयर: सत्ता को चुनौती देने वाले कलमकार ने 'लोकतंत्र बहाली' के लिए आवाज उठाई?

सारांश
Key Takeaways
- कुलदीप नैयर का जीवन पत्रकारिता में निर्भीकता और निष्पक्षता का प्रतीक है।
- उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमेशा आवाज उठाई।
- उनकी लेखन शैली ने कई लोगों को प्रेरित किया।
- कुलदीप नैयर ने मानवाधिकार के लिए संघर्ष किया।
- उनकी विरासत आज भी जीवित है।
नई दिल्ली, 22 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। कुलदीप नैयर भारतीय पत्रकारिता के उन अद्वितीय व्यक्तित्वों में से एक थे, जिन्होंने अपनी निर्भीक लेखनी से न केवल भारत, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी छाप छोड़ी। एक पत्रकार, लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनयिक के रूप में उनका बहुआयामी व्यक्तित्व उन्हें 'आधुनिक पत्रकारिता का भीष्म पितामह' बनाता है। आइए, आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर नजर डालते हैं।
14 अगस्त 1923 को पाकिस्तान के सियालकोट में जन्मे कुलदीप नैयर की प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं हुई। उन्होंने विभाजन के समय की त्रासदी का गहरा अनुभव किया, जिसने उनके विचारों को आकार दिया।
लाहौर के फॉरमैन क्रिश्चियन कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद, कुलदीप नैयर ने नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के मेडिल स्कूल ऑफ जर्नलिज्म से पत्रकारिता की पढ़ाई की। उनकी करियर की शुरुआत उर्दू अखबार 'अंजाम' से हुई। इसके बाद, उन्होंने प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो में प्रेस अधिकारी के रूप में कार्य किया और 'द स्टेट्समैन' और 'द इंडियन एक्सप्रेस' जैसे प्रमुख समाचार पत्रों के संपादक बने।
कुलदीप नैयर की पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण पहलू उनका निर्भीक और निष्पक्ष दृष्टिकोण था। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू किए जाने पर उन्होंने इसका विरोध किया और प्रेस की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। इस कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
उन्होंने अपने जीवन में कई किताबें लिखीं, जिनमें 'बियॉन्ड द लाइन्स', 'विदआउट फियर: लाइफ एंड ट्रायल ऑफ भगत सिंह', 'इंडिया हाउस', 'द जजमेंट: इनसाइड स्टोरी ऑफ द इमरजेंसी इन इंडिया' और 'इंडिया आफ्टर नेहरू' शामिल हैं। 'बियॉन्ड द लाइन्स' उनकी आत्मकथा है, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान में जन्म से लेकर भारत में पत्रकारिता और राजनीतिक उथल-पुथल का वर्णन किया है।
कुलदीप नैयर ने 'डेक्कन हेराल्ड', 'द डेली स्टार', 'द संडे गार्जियन', 'द न्यूज', 'द स्टेट्समैन', 'द एक्सप्रेस ट्रिब्यून' और 'डॉन' जैसे कई समाचार पत्रों के लिए कॉलम भी लिखे।
एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "मुझे सबसे ज्यादा संतोष तब मिलता था, जब मैं रिपोर्टिंग करता था, और मेरा लेखन लोगों पर असर डालता था। इसे खुद इंदिरा गांधी ने स्वीकार किया था कि यह जो लिखता है, उसका असर मेरे और सरकार के कामकाज पर पड़ता है।"
कुलदीप नैयर केवल पत्रकार नहीं थे, बल्कि एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और शांति के दूत भी थे। उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के लिए अथक प्रयास किए। 1995 से शुरू हुआ उनका वाघा-अटारी सीमा पर स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मोमबत्ती जलाने का अभियान दोनों देशों के बीच शांति का प्रतीक बन गया। इस पहल ने लोगों को एकजुट किया और 'हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई' का संदेश दिया।
1990 में ब्रिटेन के उच्चायुक्त बनने वाले कुलदीप नैयर 1996 में संयुक्त राष्ट्र के लिए भारत के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य भी बने। कुलदीप नैयर 1997 में राज्यसभा पहुंचे, जहां उन्होंने कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं।
उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें 23 नवंबर 2015 को पत्रकारिता में आजीवन उपलब्धि के लिए 'रामनाथ गोयनका स्मृति पुरस्कार' भी शामिल है। उन्होंने 'एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया' की स्थापना की थी।
23 अगस्त 2018 को 95 वर्ष की आयु में दिल्ली में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। उनकी मृत्यु पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें 'लोकतंत्र का सच्चा सिपाही' कहा था।