क्या मिर्जा गालिब: वल्लीमारां की गलियों के बीच एक अद्भुत शायर बने?
सारांश
Key Takeaways
- गालिब का असली नाम मिर्जा असदउल्ला खां था।
- उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ।
- गालिब की गज़लें आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई हैं।
- वे प्रेम और जीवन के जटिल पहलुओं को अपनी रचनाओं में दर्शाते हैं।
- गालिब की शायरी में गहरे भाव और जज्बात होते हैं।
नई दिल्ली, 26 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। यह कहानी है उर्दू के महानतम व्यक्तित्व मिर्जा असदउल्ला खां की, जिनका तखल्लुस गालिब था। गालिब को कुछ ने मोहब्बत का शायर कहा तो कुछ ने फिलॉस्फर का तमगा प्रदान किया। गालिब अपने आप में अनुपम थे और किसी भी तमगे में बंधने के बजाय उन्होंने अपने इकबाल और लेखनी के तीखेपन को निखारने में जीवन बिताया। उनकी हर गज़ल नए जज्बात के साथ एक अनोखी रवानगी प्रदान करती है।
27 दिसंबर 1797 को आगरा में जन्मे गालिब ने हर विषय पर लिखा। उन्होंने प्यार, तकरार, इजहार और जीवन दर्शन को अपने लफ्जों में उतारा। वे अपने समय से कहीं आगे की सोच रखते थे और नसीहतें भी दीं।
'उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है', यह पंक्ति उनके मिजाज और अंदाज को बयां करती है। इस पंक्ति के जरिए गालिब अपनी माशूका से कह रहे हैं कि तुम्हारे दीदार से हमें खुशी मिलती है। लेकिन जुदाई का रंजोगम दीदार की खुशी में छुप जाता है और तुम नहीं समझ पा रही हो कि मैं तुम्हारे बिना कितना तन्हा और अकेला हूं। गालिब प्यार को जबरदस्ती इजहार नहीं करना चाहते, वे कर भी सकते थे, लेकिन यहां उनकी महानता झलकती है और वे मर्यादाओं से बंधना सही समझते हैं।
गालिब को मर्यादाएं पसंद थीं, इसलिए उन्होंने उसे इस तरह व्यक्त किया कि लोग उनकी प्रशंसा करने से नहीं चूके। हालांकि, गालिब एक दरिया के पानी जैसे थे, जिसमें बहते जाने में ही भलाई समझी। 'देखिए पाते हैं उश्शाक बूतों से क्या फैज, इक बिरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है', यहां शायद गालिब ने तारीखों से चली आ रही परंपरा का उल्लेख किया। वे कहते हैं कि उन्हें बताया गया कि आने वाला कल अच्छा है, इसलिए इजहार करना ठीक नहीं है। दूसरे शब्दों में, गालिब हमें हौसला देते हैं कि आने वाला कल खुशियों से भरा होगा, जिसका इंतजार हमें कब से है।
वे दुनियादारी से परे की बातें भी करते हैं। जहां इंसान के बीच दरकते रिश्तों का जिक्र है और फिक्र भी। गालिब खामोश बैठे उस व्यक्ति को भी सहलाते हैं और पूछते हैं कि क्या हुआ है। तभी उन्होंने लिखा, 'दिले नादान तुम्हें हुआ क्या है, आखिर इस मर्ज की दवा क्या है, हम हैं मुश्ताक और वो बेजार, या इलाही ये माजरा क्या है।'
जैसे-जैसे गालिब की गज़लों में गोता लगाते हैं, सामने आता है वह शख्स जो मार्गदर्शक और उपदेशक दोनों है, जिसने दुनिया से अंधेरा मिटाने का संकल्प लिया है। वे उम्मीद भी देते हैं कि आने वाला समय हमारा है, बस हौसला रखो। वे खुदा से भी लड़ते-भिड़ते नजर आते हैं। वास्तव में गालिब ऐसे कुशल व्यक्तित्व थे, जिन्होंने दुनिया देखी और दुनिया में होने का अर्थ समझा।
'गालिब न कर हूजुर में तू बार-बार अर्ज, जाहिर है तेरा हाल सब उसपर कहे बगैर', कुछ लोग इसे प्रेमिका के लिए लिखा मानते हैं, लेकिन यह गालिब को समझने की हमारी नादानी है। गालिब ने इन लाइनों को खुदा के शान में लिखा है, लेकिन उनके लिए उनका इश्क ही खुदा की सच्ची इबादत है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि इश्क काम से, तबीयत से और खुदा से भी।
हालांकि मिर्जा गालिब जैसे शायर और गज़लख्वां को शब्दों में ढालना हमारी हिमाकत ही कही जा सकती है। क्योंकि गालिब को समझने के लिए निजी जज्बातों से ज्यादा इंसानी रिश्तों की हकीकत समझनी होगी। अगर इंसान को समझने का हुनर आ जाए तो गालिब के शब्दों की पेचीदगी अपने आप खुलती चली जाती है।