क्या रानी झांसी रेजिमेंट ने साबित किया कि आजादी की लड़ाई में महिलाएं भी योद्धा हैं?

सारांश
Key Takeaways
- रानी झांसी रेजिमेंट ने नारी सशक्तीकरण का एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया।
- यह रेजिमेंट केवल एक सैन्य इकाई नहीं, बल्कि बलिदान का प्रतीक थी।
- महिलाएं भी आजादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए तैयार थीं।
- इस रेजिमेंट ने यह सिद्ध किया कि देशभक्ति में लिंग का कोई भेद नहीं होता।
- इतिहास ने इन वीरांगनाओं को कभी उचित सम्मान नहीं दिया।
नई दिल्ली, 22 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। यह कहानी है ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की, जिसने यह सिद्ध किया कि देशभक्ति का जज़्बा किसी भी लैंगिक सीमा से परे है। 23 अक्टूबर 1943 को, सिंगापुर की धरती पर एक ऐतिहासिक घटना घटी, जब भारत की आजादी की लड़ाई में नारी शक्ति ने हथियार उठाकर इतिहास की रचना की।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में स्थापित यह पहली महिला सैन्य टुकड़ी केवल एक सैन्य इकाई नहीं थी, बल्कि यह नारी सशक्तीकरण और बलिदान का प्रतीक भी थी। 1942 में, जब नेताजी ने अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की, तब उन्होंने यह स्पष्ट किया कि आजादी की लड़ाई में महिलाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।
संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट ‘अमृतकाल.एनआईसी’ के अनुसार, झांसी की रानी रेजिमेंट आजाद हिंद फौज की महिला रेजिमेंट थी, जिसका उद्देश्य औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश राज को समाप्त करना था। यह द्वितीय विश्व युद्ध की कुछ प्रमुख महिला लड़ाकू रेजिमेंटों में से एक थी।
यह सेना ऐसे समय में अस्तित्व में आई जब यह साबित करना आवश्यक था कि 'जब देश पुकारता है, तो महिलाएं भी हथियार उठा सकती हैं।' रानी झांसी रेजिमेंट का नाम 1857 की क्रांति की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में रखा गया था।
इस रेजिमेंट की कमान कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने संभाली, जो एक डॉक्टर थीं, लेकिन नेताजी के आह्वान पर उन्होंने अपनी जिंदगी राष्ट्रसेवा को समर्पित कर दी।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने अपनी आत्मकथा ‘ए रिवॉल्यूशनरी लाइफ (1997)’ में लिखा, "जहां बागानों में महिलाएं पशुओं जैसी जिंदगी जीती थीं, वहीं रानी झांसी रेजिमेंट में उन्हें पहली बार अपनी पहचान और सम्मान मिला।"
करीब 1000 महिलाएं इस सेना में शामिल हुईं, जो भारत में नहीं, बल्कि बर्मा, मलेशिया और सिंगापुर में बसे भारतीय परिवारों की बेटियां थीं। इन सभी को असली फौजी ट्रेनिंग दी गई थी, जिसमें बंदूक चलाना, हथियार संभालना, परेड, युद्ध रणनीति और जंगल युद्ध की तकनीकें शामिल थीं।
23 अक्टूबर 1943 वह दिन था जब सिंगापुर में रानी झांसी रेजिमेंट की पहली सैन्य ट्रेनिंग शुरू हुई। 30 मार्च 1944 को इस रेजिमेंट की पहली 'पासिंग आउट परेड' हुई, जिसमें 500 महिला सैनिकों ने मार्च किया और ‘चलो दिल्ली’ का नारा गूंजा। इनमें से करीब 200 महिलाओं को नर्सिंग ट्रेनिंग दी गई, जिसे 'चांद बीबी नर्सिंग कॉर्प्स' कहा गया।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, जब आजाद हिंद फौज ने इंफाल अभियान शुरू किया, तब रानी झांसी रेजिमेंट की कुछ सदस्य बर्मा में अग्रिम मोर्चे पर तैनात की गईं। हालांकि युद्ध की परिस्थितियों और अंग्रेजों की सैन्य शक्ति के चलते उन्हें सीधे युद्ध में उतरने का अवसर कम मिला, लेकिन वे पीछे रहकर घायल सैनिकों की सेवा और मोर्चे की देखभाल में जुटी रहीं।
सिंगापुर नेशनल लाइब्रेरी की वेबसाइट पर ‘योद्धा महिलाएं: झांसी की रानी रेजिमेंट’ लेख में उल्लेख है कि द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में जब हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा, तो युद्ध का अंत तेजी से हुआ। सुभाष चंद्र बोस ने अपने वचन के अनुसार सभी महिलाओं को सुरक्षित उनके परिवारों तक पहुंचा दिया। इसके कुछ ही दिनों बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस की विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई, यह एक ऐसा रहस्य है जो आज भी अनसुलझा है।
लेख में यह भी बताया गया है कि युद्ध के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने इन महिलाओं को 'भटकी हुई लड़कियां' कहकर नजरअंदाज कर दिया। जहां पुरुष सैनिकों पर दिल्ली के लालकिले में मुकदमे चले, वहीं ये महिलाएं वापस अपने सामान्य जीवन में भेज दी गईं। कई शिक्षित महिलाओं ने आगे चलकर पेशेवर करियर बनाए और उनकी बदौलत हमें आज इस रेजिमेंट के बारे में जानकारी मिलती है, लेकिन अधिकतर महिलाएं फिर से समाज में गुमनाम हो गईं।
इतिहास ने इन वीरांगनाओं को कभी वह सम्मान नहीं दिया जिसकी वे हकदार थीं। इतिहासकार जेराल्डिन फोर्ब्स ने लक्ष्मी सहगल की आत्मकथा की भूमिका में लिखा, "यह अफसोस की बात है कि इतने सालों बाद भी इतिहास में इन महिलाओं की भूमिका को उचित स्थान नहीं दिया गया, केवल इसलिए कि वे फ्रंटलाइन पर नहीं लड़ीं।"
हालांकि यह रेजिमेंट औपचारिक रूप से भंग हो गई, लेकिन रानी झांसी रेजिमेंट ने यह सिद्ध कर दिया कि आजादी की लड़ाई केवल पुरुषों की नहीं, बल्कि भारत की हर बेटी की भी थी।