क्या परमवीर पराक्रम का इतिहास हमें प्रेरित करता है?
सारांश
Key Takeaways
- वीरता की परिभाषा मेजर होशियार सिंह से सीखें।
- कर्तव्य के प्रति उनकी निष्ठा हमें प्रेरित करती है।
- उनका बलिदान और साहस भारतीय सेना का गौरव है।
- हर भारतीय को उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए।
- परमवीर चक्र जैसे सम्मान हमें अपने हीरो की याद दिलाते हैं।
नई दिल्ली, 5 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। हमारे देश पर कई बार विदेशी शक्तियों ने युद्ध थोपने की कोशिश की है। लेकिन, हर एक युद्ध का अंत भारतीय सैनिकों ने अपने साहस और बलिदान से किया है। भारत की इस विजय यात्रा में कई नाम हैं, जिनमें से एक प्रमुख नाम परमवीर चक्र से सम्मानित मेजर होशियार सिंह का है। वे वीरता, कर्तव्यनिष्ठा और धैर्य का प्रतीक रहे हैं। 6 दिसंबर 1998 को इस संसार से विदा लेने के बाद, उन्होंने एक ऐसा इतिहास छोड़ा है जो सदियों तक आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा।
5 मई 1937 को हरियाणा के सिसाना गांव में जन्मे होशियार सिंह के भीतर बचपन से ही अनुशासन और दृढ़ता थी। उनके पिता चौधरी हीरा सिंह किसान और माता मथुरी देवी गृहिणी थीं। 7वीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान उनकी शादी धन्नो देवी से हो गई। आगे चलकर उनके तीन बेटे हुए। कम उम्र में गृहस्थ जीवन शुरू होने के बावजूद, उनके सपनों में देशसेवा प्रमुख थी। जाट कॉलेज रोहतक में सिर्फ एक वर्ष पढ़ाई करने के बाद उन्होंने सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया। 30 जून 1963 को 3 ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट में कमीशन प्राप्त किया और उनकी पहली पोस्टिंग एनईएफए में हुई। 1965 का युद्ध उनके करियर का पहला बड़ा सैन्य अनुभव था, लेकिन उनकी असली पहचान 1971 के युद्ध में बनी।
दिसंबर 1971 में शकरगढ़ सेक्टर में बसांतर नदी के पार एक मजबूत ब्रिजहेड बनाना था, जहाँ दोनों तरफ गहरे माइन्स और ऊपर से पाकिस्तान की भारी मशीनगनों का जाल था। इस कठिन मिशन की जिम्मेदारी 3 ग्रेनेडियर्स पर थी। उस समय मेजर होशियार सिंह सी कंपनी के कमांडर थे, जिन्हें जर्पाल के दुर्गम क्षेत्र पर कब्जा करना था। गोलियों की बौछार, तोपों की गड़गड़ाहट और सामने मौत खड़ी थी। लेकिन, मेजर होशियार सिंह ने आगे बढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी कंपनी पर जबरदस्त क्रॉसफायर हुआ, लेकिन उन्होंने आगे बढ़कर दुश्मन को खदेड़ दिया। इसके बाद, 16 दिसंबर को दुश्मन ने तीन बार काउंटरअटैक किया, जिसमें से दो बार टैंक के साथ। मेजर सिंह ने अपने सैनिकों को प्रेरित किया और हर मोर्चे पर लड़ाई को मजबूती से थामे रखा।
अगले दिन, 17 दिसंबर को, दुश्मन ने भारी आर्टिलरी और एक पूरी बटालियन के साथ हमला किया। इसी दौरान एक गोला मेजर सिंह के पास फटा और वे गंभीर रूप से घायल हो गए। लेकिन, इसके बाद भी रणभूमि में उनकी भूमिका खत्म नहीं हुई। जब दुश्मन का गोला गिरा और वहां तैनात सैनिक घायल हो गए, तब मेजर होशियार सिंह खुद मशीनगन के गड्ढे में कूद पड़े, मशीनगन संभाली और ऐसा प्रहार किया कि पाकिस्तानी सेना 85 शव और अपने कमांडिंग ऑफिसर को छोड़कर भाग गई। इसके बावजूद, सीजफायर तक वे पीछे नहीं हटे। वे अंतिम सांस तक मोर्चे पर डटे रहे। उनकी इस अद्भुत वीरता के लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च वीरता सम्मान, परमवीर चक्र मिला।
कर्नल के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद, 6 दिसंबर 1998 को उन्होंने अंतिम सांस ली। मेजर साहब अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कहानी हर भारतीय के लिए एक प्रेरणा है। वे एक ऐसे योद्धा थे जो कर्तव्य के पथ पर अंतिम समय तक डटे रहे।