क्या 4 नवंबर 1995 की रात शांति का गीत अधूरा रह गया?
सारांश
Key Takeaways
- शांति का प्रयास हमेशा साहस मांगता है।
- नफरत से पैदा होने वाली हिंसा विनाशकारी होती है।
- उम्मीद का सपना हमेशा जीवित रहना चाहिए।
- ऐसी घटनाएँ हमें एकता की आवश्यकता का एहसास कराती हैं।
- शांति की दिशा में हर प्रयास महत्वपूर्ण है।
नई दिल्ली, 3 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। तेल अवीव की उस रात में उम्मीद का स्वर गूंज रहा था। 4 नवंबर 1995 को हजारों लोग 'शांति रैली' में शामिल हुए, और मंच पर इजरायल के प्रधानमंत्री 'यित्जाक राबिन' मुस्कुराते हुए खड़े थे। वह युद्ध के अनुभवी सैनिक थे, लेकिन उस दिन उन्होंने हथियार नहीं, शांति का गीत गाया। भीड़ “शीर लाशलोम” यानी “शांति का गीत” गा रही थी, और राबिन भी उसमें शामिल थे। उनके हाथों में एक कागज था जिस पर गीत के बोल लिखे थे।
जैसे ही गीत समाप्त हुआ, तालियों की गड़गड़ाहट हुई, और राबिन के चेहरे पर वही सुकून था जब वह मंच से उतर रहे थे। लेकिन कुछ ही क्षणों में, भीड़ में से एक सरफिरा आगे आया और गोली चला दी। तीन गोलियां, और शांति का गीत अधूरा रह गया। वह कागज जिस पर गीत के बोल थे, राबिन की जेब में खून से सना मिला। उस रात केवल एक नेता की मृत्यु नहीं हुई, बल्कि एक सपना भी दफन हो गया - जिसमें युद्ध से थकी दुनिया को संवाद पर भरोसा था।
हत्या करने वाले का नाम इगल आमीर था। वह एक यहूदी कट्टरपंथी था जिसने राबिन की नीतियों को 'देशद्रोह' माना। उसका मानना था कि फिलिस्तीन के साथ समझौता इजरायल की धार्मिक और राजनीतिक आत्मा को कमजोर कर देगा। राबिन को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन कुछ ही देर में उनकी मृत्यु की घोषणा कर दी गई। उस समय उनकी आयु 73 वर्ष थी। इस खबर ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया।
राबिन की पहचान विरोधाभासों से भरी थी। उन्होंने 1967 के 'सिक्स-डे वॉर' में सेना का नेतृत्व किया, लेकिन बाद में वही ओस्लो समझौते के जरिए फिलिस्तीन से शांति की कोशिश करने वाले पहले प्रधानमंत्री बने। यासर अराफात के साथ उनकी ऐतिहासिक हैंडशेक की तस्वीर आज भी दुनिया भर में उम्मीद की मिसाल है। इसी के चलते उन्हें 1994 में शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिला। लेकिन उसी शांति प्रयास ने उनके देश के कुछ लोगों के भीतर नफरत की दीवारें खड़ी कर दीं। उन्हें 'देशद्रोही' कहा गया और उस नफरत ने अंततः उनके सीने में गोलियां उतार दीं।
राबिन की हत्या ने इजरायल और पूरी दुनिया को झकझोर दिया। यह वह क्षण था जब सबने महसूस किया कि शांति की राह सिर्फ शब्दों से नहीं, बल्कि साहस से बनती है। तेल अवीव में जहाँ यह घटना हुई, वहीं आज 'राबिन स्क्वायर' बना है - जहाँ हर साल लोग श्रद्धांजलि देने के लिए जुटते हैं। मोमबत्तियाँ जलाते हैं और वही गीत फिर से गाते हैं, जो उस रात अधूरा रह गया था - 'शीर लाशलोम।' उस गीत की पंक्तियां अब भी गूंजती हैं, जिसका अर्थ है “शांति की ओर देखो, युद्ध की नहीं; वह दिन आ सकता है जब हमारे दिल फिर से एक दूजे के लिए खुल सकें।”