क्या आदिवासी नायिका तुलसी मुंडा ने साक्षरता की मशाल जलाई?

सारांश
Key Takeaways
- तुलसी मुंडा का जीवन शिक्षा का एक प्रेरणादायक उदाहरण है।
- उन्होंने बिना औपचारिक शिक्षा के साक्षरता की मशाल जलाई।
- उनका संघर्ष आत्मविश्वास और स्वतंत्रता की भावना को प्रोत्साहित करता है।
- तुलसी ने 20,000 से अधिक बच्चों को शिक्षित किया।
- उनकी उपलब्धियाँ समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में सहायक रही।
नई दिल्ली, 14 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। ओडिशा के केओंझर जिले के छोटे से गांव कैंशी में 15 जुलाई 1947 को जन्मीं तुलसी मुंडा को स्नेह से ‘तुलसी आपा’ कहा जाता है। उन्हें एक ऐसी अद्भुत शख्सियत के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपने जीवन को आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए समर्पित किया।
तुलसी मुंडा ने बिना किसी औपचारिक शिक्षा के अपने दृढ़ संकल्प और सामाजिक बदलाव की चाह से हजारों बच्चों के जीवन को रौशन किया।
तुलसी मुंडा की कहानी प्रेरणा का एक जीवंत उदाहरण है। बचपन में वह स्वयं केओंझर की लौह अयस्क खदानों में बाल मजदूरी करती थीं। उस समय उनके समुदाय में शिक्षा का कोई महत्व नहीं था, विशेषकर लड़कियों के लिए। लेकिन, तुलसी मुंडा के मन में कुछ और ही आग थी। 1963 में भूदान आंदोलन के दौरान आचार्य विनोबा भावे से उनकी मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी।
विनोबा भावे के विचारों से प्रेरित होकर, तुलसी मुंडा ने अपने समुदाय में साक्षरता फैलाने का संकल्प लिया। 1964 में, तुलसी ने अपने घर के बरामदे में एक अनौपचारिक स्कूल की स्थापना की। खनन क्षेत्र में स्थित सेरेंडा गांव में शिक्षा की स्थिति बेहद दयनीय थी। अधिकांश बच्चे खदानों में काम करने को मजबूर थे।
तुलसी मुंडा ने गांववालों को शिक्षा का महत्व समझाने का प्रयास किया, जो शुरुआत में एक कठिन कार्य था। उन्होंने रात में स्कूल चलाना शुरू किया ताकि दिन में काम करने वाले बच्चे पढ़ सकें। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाई और उन्होंने ‘आदिवासी विकास समिति स्कूल’ की स्थापना की। इस स्कूल में समय के साथ बच्चों ने दाखिला लेना शुरू किया और वे साक्षर हुए। आज यह स्कूल 10वीं कक्षा तक लगभग 500 बच्चों को शिक्षा प्रदान करता है, जिसमें अधिकांश लड़कियां हैं।
तुलसी मुंडा की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने 20,000 से अधिक बच्चों को शिक्षित किया और सरकार के सहयोग से 17 प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल स्थापित करने में मदद की। उनके प्रयासों ने न केवल शिक्षा का स्तर बढ़ाया बल्कि क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक हालात को भी बेहतर किया। यह उपलब्धि और भी खास है क्योंकि वह स्वयं निरक्षर हैं।
तुलसी मुंडा ने अपने संघर्ष की कहानी को बयां करते हुए कहा था, "मैंने कभी स्कूल नहीं देखा, लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि मेरे समुदाय के बच्चे भी मेरी तरह रहें। इसलिए हमने अपने बच्चों को साक्षर करने का बीड़ा उठाया। जब तक मेरे शरीर में सांस है, मैं इस दिशा में काम करती रहूंगी।"
तुलसी मुंडा ने न केवल शिक्षा दी, बल्कि बच्चों में आत्मविश्वास और स्वतंत्रता की भावना भी जगाई। उनकी प्रेरणा से कई युवा शिक्षक बन गए, जो अब उनके मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।
तुलसी मुंडा को 2001 में पद्म श्री के अलावा ओडिशा लिविंग लीजेंड अवार्ड (2011), कादंबिनी सम्मान (2008) और लक्ष्मीपत सिंहानिया-आईआईएम लखनऊ नेशनल लीडरशिप अवॉर्ड जैसे सम्मान भी मिले।
2017 में उनके जीवन पर आधारित एक ओडिया बायोपिक ‘तुलसी आपा’ भी रिलीज हुई, जिसमें उनकी कहानी ने दर्शकों के दिल को जीत लिया।