क्या जीवन ने 10 मिनट के रोल में खलनायक बनकर इतिहास रच दिया?

सारांश
Key Takeaways
- जीवन का असली नाम ओंकारनाथ था।
- उन्होंने 61 बार नारद मुनि का किरदार निभाया।
- फिल्म 'कानून' में 10 मिनट के रोल ने उन्हें पहचान दिलाई।
- जीवन का जन्म 24 अक्टूबर 1915 को हुआ।
- उन्होंने 200 से अधिक फिल्मों में काम किया।
मुंबई, 23 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। वह कश्मीरी पंडित जिनका जन्म 24 अक्टूबर 1915 को कश्मीर घाटी में हुआ, किसे पता था कि वह एक दिन फिल्म जगत के सबसे प्रतिभाशाली अभिनेता बनेंगे। एक ऐसा अभिनेता जिसे खलनायक और मुनि के किरदारों में अद्वितीय प्रशंसा प्राप्त हुई।
यह बात मशहूर अभिनेता जीवन की है, जिनका असली नाम ओंकारनाथ है। बचपन से ही उनका अभिनय के प्रति लगाव था, और यही लगाव उन्हें 1930 के दशक में मुंबई ले आया। मुंबई पहुँचते ही उनके पास केवल 26 रुपए और अभिनय का जुनून था।
जीवन ने रंगमंच में छोटे-मोटे कार्यों से शुरुआत की। 1935 में आयी 'रोमांटिक इंडिया' से उन्होंने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की। लेकिन असली धमाका 1940 के दशक में हुआ, जब 'स्टेशन मास्टर' और 'घर की इज्जत' जैसी फिल्मों में उनकी संजीदा अदाकारी ने दर्शकों का दिल जीत लिया। 'धर्मवीर', 'अफसाना', 'नया दौर', और 'मेला' में उनके खलनायक वाले किरदार आज भी रोंगटे खड़े कर देते हैं।
जीवन का असली जादू नारद मुनि के किरदार में देखने को मिला। 1940 से 1980 तक, उन्होंने 61 बार इस भूमिका को निभाया। यह लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज एक ऐसा रिकॉर्ड है। जब भी वह वीणा लिए सफेद धोती में मुस्कान के साथ पर्दे पर आते, दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते।
वह दूत से लेकर विलेन तक, जीवन ने साबित किया कि प्रतिभा की कोई सीमा नहीं। 70-80 के दशक में उन्होंने 200 से अधिक फिल्मों में काम किया, जहां हर रोल में उनकी आवाज दिलों को भेदती चली गई।
जीवन का चेहरा उस दौर में दर्शकों को या तो क्रूर साहूकार की याद दिलाता था या फिर नारद मुनि की। उनके करियर का सबसे बड़ा दांव, सबसे बड़ा प्रभाव, और सबसे बड़ा किस्सा 1960 की एक फिल्म से जुड़ा है।
यह एक ऐसी फिल्म थी जिसमें वह पूरी कहानी के दौरान अनुपस्थित रहे, और जब अंत में केवल एक सीन के लिए उपस्थित हुए, तो उन्होंने न सिर्फ पूरी कहानी का रुख मोड़ दिया, बल्कि अपने लिए एक स्थायी पहचान भी बना ली। इस किस्से का जिक्र जीवन ने एक इंटरव्यू में किया था।
बात 1960 की है, जब निर्देशक बी.आर. चोपड़ा अपनी फिल्म 'कानून' के साथ एक बड़ा जोखिम ले रहे थे। यह हिंदी सिनेमा की शुरुआती फिल्मों में से एक थी जिसमें कोई गाना नहीं था, यानी यह पूरी तरह से अपनी सस्पेंस और कहानी पर निर्भर थी। इस अनूठी फिल्म में जीवन को एक ऐसा किरदार मिला, जो पहले कभी नहीं दिया गया था, वह विलेन जो अदृश्य था।
यह किरदार था 'कालीदास', एक खूंखार और शातिर मुजरिम, जो पूरी कहानी के दौरान एक रहस्य बना रहता है। 'कानून' का क्लाइमेक्स, एक कोर्ट रूम ड्रामा था, जहां दर्शक पूरी फिल्म में हत्यारे की पहचान जानने के लिए बैठे थे। यही वह पल था जहां जीवन के करियर का सबसे बड़ा जादू हुआ।
फिल्म के अंतिम क्षणों में जब सभी रहस्य सुलझ जाते हैं, तब पता चलता है कि जिस व्यक्ति को अब तक हत्यारा समझा जा रहा था, वह केवल एक मोहरा था। असली मास्टरमाइंड तो वह व्यक्ति था, जो अब अदालत के कटघरे में खड़ा होगा और वह थे जीवन।
जीवन का एकमात्र दृश्य कोर्ट रूम में था। अपने शांत, लेकिन आंखों में चालाकी भरे लुक के साथ, वह कुछ मिनटों के लिए पर्दे पर छा गए। उनका वह खतरनाक हाव-भाव और शातिर अभिव्यक्ति इतनी जबरदस्त थी कि दर्शकों के रोंगटे खड़े हो गए। इस केवल एक सीन ने पूरी फिल्म के सस्पेंस को एक नया आयाम दिया। यह किसी भी विलेन द्वारा दिया गया सबसे छोटा, फिर भी सबसे अधिक यादगार प्रदर्शन बन गया।
फिल्म 'कानून' की सफलता और जीवन के इस एक सीन के प्रभाव के बाद फिल्म इंडस्ट्री ने उनकी अभिनय क्षमता को पहचाना।