क्या खय्याम न होते तो उमराव जान का अस्तित्व होता?

सारांश
Key Takeaways
- खय्याम का संगीत दिल को छू लेने वाला होता है।
- उमराव जान फिल्म में खय्याम का योगदान अमूल्य है।
- खय्याम ने उर्दू शायरी और संगीत का अद्वितीय संगम प्रस्तुत किया।
- उमराव जान ने आशा भोसले को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।
- खय्याम का दान उनके दिलदार व्यक्तित्व को दर्शाता है।
नई दिल्ली, 18 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। अगर खय्याम न होते तो क्या होता? यह सवाल न केवल संगीत के प्रेमियों के लिए है, बल्कि रेखा के लिए भी जो उनकी संगीतबद्ध गजलों और नज्मों पर थिरकती हैं। उन्होंने एक शो में कहा था 'अगर खय्याम न होते तो उमराव जान न होती।'
बॉलीवुड में कई प्रसिद्ध संगीतकार आए और चले गए, लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं जिन्हें न केवल सुना जाता है, बल्कि महसूस भी किया जाता है। मोहम्मद जहूर हाश्मी, जिन्हें हम सभी खय्याम साहब के नाम से जानते हैं, उन में से एक थे। 19 अगस्त 2019 को उन्होंने मुंबई के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली, और अपने पीछे एक ऐसी अमिट विरासत छोड़ गए जो आज भी लोगों के दिलों में धड़कती है।
खय्याम का संगीत तेज नहीं था, लेकिन इसका प्रभाव ऐसा था कि आज भी जब उनके गाने सुने जाएं तो समय ठहर सा जाता है। उनके गाने 'क्लासिकल' थे, लेकिन हर किसी के दिल से जुड़ते थे। कोई भी व्यक्ति चाहे वह नौसिखिया ही क्यों न हो, उन्हें गुनगुनाने से नहीं रोक सकता। चाहे 'कभी-कभी मेरे दिल में' हो, या 'ऐ दिले नादान', या फिर 'दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए'—हर गीत में एक नजाकत, एक तहजीब, और एक खामोश सा दर्द था जो सुनने वाले को मोहब्बत की गहराइयों तक ले जाता था।
खय्याम साहब का संगीत शोर नहीं मचाता, बल्कि दिल में चुपके से घर बना लेता है। उनके जीवन से जुड़ी कई कहानियाँ हैं। पढ़ाई में रुचि नहीं होने के कारण उन्होंने फौजी बनने का फैसला किया, लेकिन फिर संगीतकार रहमान वर्मा के साथ जोड़ी बनाकर कुछ फिल्मों में अपनी पहचान बनाई। उनके संगीत का सफर दिल्ली से लाहौर और फिर मुंबई तक फैला हुआ था।
उमराव जान, जो 19वीं सदी के उपन्यास पर आधारित एक बेहद खूबसूरत फिल्म थी, को मुजफ्फर अली ने बारीकी से सेल्युलाइड पर उतारा। चूंकि मुख्य किरदार एक तवायफ था, इसलिए संगीत भी उसी काल की स्थिति को दर्शाना था।
अली साहब ने खय्याम का चुनाव किया, जो पूरी तरह से सही था। उमराव जान (1981) में उनके बनाए गाने जैसे 'इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं', 'दिल चीज़ क्या है', और 'जुस्तजू जिस की थी' केवल गाने नहीं थे, बल्कि वे उर्दू शायरी, संगीत, और अदायगी का एक त्रिवेणी संगम बन गए।
खय्याम साहब ने इस फिल्म का संगीत देने के लिए न केवल उपन्यास को पूरा पढ़ा, बल्कि उस समय की राग-रागनियों, लिबास, और बोली का गहन अध्ययन किया। एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि आशा भोसले को उनके कंफर्ट जोन से निकालकर एक सुर नीचे गाने के लिए कहा, जिसे लेकर वो अनमनी थीं।
इन गानों ने आशा भोसले को उस मुकाम तक पहुंचा दिया जहां शायद 'उमराव जान' न होती तो यह संभव नहीं था।
हाल ही में यह फिल्म फिर से पर्दे पर आई। रेखा से कई लोगों ने पूछा कि क्या खय्याम न होते तो क्या उमराव जान होती? उन्होंने वही कहा जो उन्होंने कई साक्षात्कारों में कहा है—'अगर खय्याम न होते, तो उमराव जान न होती।'
खय्याम एक दिलदार इंसान थे। यही वजह थी कि उन्होंने अपने 90वें जन्मदिन पर करोड़ों रुपए दान किए थे। उनकी धुनें, संयम, और योगदान उन्हें अमर बना देते हैं।