क्या सुशील कुमार का सफर एक कॉन्ट्रैक्ट और पहचान के साथ था?

सारांश
Key Takeaways
- सुशील कुमार का सफर संघर्ष और मेहनत का प्रतीक है।
- उनकी फिल्म 'दोस्ती' ने उन्हें नई पहचान दिलाई।
- राजश्री प्रोडक्शंस से मिला कॉन्ट्रैक्ट उनके करियर का टर्निंग पॉइंट था।
- आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने अपने सपनों का पीछा किया।
- उनकी कहानी प्रेरणा है उन सभी के लिए जो संघर्ष कर रहे हैं।
नई दिल्ली, 3 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। फिल्म इंडस्ट्री के हर युग में कुछ ऐसे चेहरे होते हैं जो चमक-दमक से नहीं, बल्कि अपनी सादगी और अंदाज से दर्शकों के दिलों में बस जाते हैं। 1960 के दशक की बात करें तो उस समय कई बड़े सितारे फिल्मों में सफलता के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन एक मासूम चेहरा पर्दे पर आया, जिसने बिना किसी शोर के अपनी गहरी छाप छोड़ी। वह चेहरा था सुशील कुमार का... मुंबई की एक चॉल से निकलकर फिल्मी पर्दे तक का उनका सफर अत्यंत प्रेरणादायक है। उनकी 'धूल का फूल', 'काला बाजार' और विशेष रूप से 'दोस्ती' जैसी फिल्में आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई हैं। उनके करियर में एक सुनहरा मोड़ तब आया जब उन्हें राजश्री प्रोडक्शंस से तीन साल का कॉन्ट्रैक्ट मिला, जो उस समय हर उभरते कलाकार का सपना हुआ करता था।
सुशील कुमार की जिंदगी किसी फिल्मी कहानी से कम दिलचस्प नहीं है। उनका जन्म 4 जुलाई, 1945 को कराची में एक सिंधी परिवार में हुआ था। देश के बंटवारे के समय उनका परिवार भारत आ गया, जब उनकी उम्र केवल ढाई साल थी। उनका परिवार पहले गुजरात के नवसारी में बसा, लेकिन वहाँ व्यवसाय में असफलता के कारण, 1953 में वे मुंबई के महिम इलाके में आ गए। यहाँ उनके दादाजी को व्यवसाय में बड़ा घाटा हुआ और वे दिवालिया हो गए, जिसके कारण पूरा परिवार मुंबई की चॉल में रहने लगा।
इस बीच, उनके पिता और दादा दोनों का निधन हो गया, और सुशील कुमार की मां उन्हें और उनके दो भाई-बहनों को लेकर चेम्बूर में अपनी मौसी के पास चली गईं। यहाँ उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। आर्थिक तंगी के चलते उनकी मां ने उन्हें फिल्मों में काम करने भेजा। उन्होंने बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट कई फिल्मों में काम किया, जिनमें 'फिर सुबह होगी', 'काला बाजार', 'धूल का फूल', 'मैंने जीना सीख लिया', 'श्रीमान सत्यवादी', 'दिल भी तेरा हम भी तेरे', 'संजोग', 'एक लड़की सात लड़के', 'फूल बने अंगारे', और 'सहेली' जैसी फिल्में शामिल हैं।
इस दौरान, राजश्री प्रोडक्शंस के मालिक ताराचंद बड़जात्या एक बंगाली फिल्म 'लालू-भुलू' का हिंदी रीमेक बनाने की सोच रहे थे। फिल्म का नाम 'दोस्ती' रखा गया, और उन्हें इसमें दो युवा लड़के चाहिए थे। तभी उनकी बेटी राजश्री ने अपने पिता को सुशील कुमार का नाम सुझाया, क्योंकि उन्होंने 'फूल बने अंगारे' में सुशील का काम देखा था और उनसे प्रभावित थीं।
बेटी के कहने पर, ताराचंद बड़जात्या ने अपनी टीम के एक सदस्य को फिल्म के ऑफर के साथ सुशील के घर भेजा। उस समय, किसी प्रोडक्शन हाउस से कॉन्ट्रैक्ट मिलना बहुत बड़ी सफलता मानी जाती थी, और राजश्री ने उनके साथ तीन साल का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया, जिसमें उन्हें हर महीने 300 रुपये वेतन मिलते थे।
यह राशि आज के समय में बहुत मामूली लग रही है, लेकिन उस समय यह काफी बड़ी मानी जाती थी। सुशील को अब एक निश्चित आय मिल रही थी। पहले फिल्मों में काम करना उनकी मजबूरी थी, लेकिन अब यह एक अवसर बन गया।
'दोस्ती' फिल्म जब रिलीज़ हुई, तो यह बॉक्स ऑफिस पर हिट हो गई। इस फिल्म ने उन्हें एक नई पहचान दी। दर्शकों ने माना कि सुशील ने बिना किसी शोर-शराबे के इंडस्ट्री में अपनी अभिनय के दम पर जगह बनाई। राजश्री प्रोडक्शंस ने उन्हें और भी फिल्मों में काम दिया। इस दौरान उनकी दोस्ती एक्टर सुधीर कुमार से हुई। लोगों ने दोनों की जोड़ी को सराहा, लेकिन जब सुधीर कुमार को एमवीएम प्रोडक्शन से मद्रास में फिल्म 'लाडला' का ऑफर मिला, तो उन्होंने राजश्री का कॉन्ट्रैक्ट तोड़ दिया।
इसका असर सुशील कुमार के करियर पर पड़ा। राजश्री ने उनके साथ अगली फिल्म बनाने का काम बंद कर दिया। इस दौरान सुशील मॉस्को में 'दोस्ती' फिल्म के इंटरनेशनल चिल्ड्रेन फिल्म फेस्टिवल में भाग लेने गए थे। वहां उन्हें जो सम्मान मिला, उसने उनके आत्मविश्वास को और बढ़ा दिया। हालांकि, यह अफसोस रहा कि सुधीर के जाने के कारण उनकी अगली फिल्म रुक गई।
इसके बाद, सुशील ने फिल्मों को धीरे-धीरे अलविदा कह दिया और अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने जय हिंद कॉलेज से बी.ए. किया और कुछ समय बाद उन्हें एयर इंडिया में फ्लाइट परसर की नौकरी मिली। 1971 से 2003 तक उन्होंने नौकरी की और दुनिया के कई देशों का दौरा किया। वह 1973 में देव आनंद की फिल्म 'हीरा पन्ना' में एक सीन में एयर होस्टेस के तौर पर भी नजर आए।
इसके बाद, वह गुमनामी की दुनिया में खो गए। 2014 में रेडियो कार्यक्रम 'सुहाना सफर विद अन्नू कपूर' में सुशील कुमार के बारे में सवाल किया गया था। इस कार्यक्रम में उनसे जुड़ी अफवाहों की सच्चाई भी जाननी चाही गई। इस शो के लिए रिसर्च करने वाले शिशिर कृष्ण शर्मा ने उनसे बकायदा मुलाकात कर घंटों बात की। इस दौरान सुशील कुमार ने बताया कि ‘दोस्ती’ में निभाया उनका चरित्र उनकी असल जिंदगी से बहुत मेल खाता था। अपने किरदार 'रामनाथ' की तरह उन्होंने भी बचपन में गरीबी और दु:ख देखा और इसलिए फिल्म के एक गाने की पंक्तियाँ - “सुख है इक छांव ढलती, आती है जाती है, दु:ख तो हमारा साथी है” उन्हें बहुत प्रिय हैं।