क्या 'एनसीडी' ऐसी बीमारियां हैं जो दिखती नहीं, लेकिन जानलेवा हैं?

Key Takeaways
- एनसीडी अदृश्य लेकिन घातक हैं।
- हर वर्ष 75% मौतें गरीब देशों में होती हैं।
- सरकारी नीतियों में सुधार की आवश्यकता है।
- 3 डॉलर प्रति व्यक्ति से 12 मिलियन जीवन बचाए जा सकते हैं।
- जागरूकता और शिक्षा से एनसीडी को रोका जा सकता है।
नई दिल्ली, 20 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। आजकल जीवन की गती इतनी तीव्र हो गई है कि न तो किसी के पास खाने का समय है, न सोने की चिंता और न ही अपनों के साथ कुछ क्षण बिताने की फिक्र! लोग दिनभर की थकान को कोल्ड ड्रिंक से धोते हैं, स्ट्रेस को सिगरेट के छल्लों में उड़ाते हैं या शराब में घोलकर पी जाते हैं। इसके अलावा, काम का दबाव, सोशल मीडिया की दौड़ और रिश्तों की उलझनें भी हैं। यही कारण है कि कुछ ऐसी बीमारियां हमारे शरीर में प्रवेश कर रही हैं जिनके लक्षण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देते। ये वो बीमारियां हैं जो दिखती नहीं हैं लेकिन भीतर ही भीतर शरीर को खोखला करती रहती हैं। इन्हें कहा जाता है एनसीडी (नॉन कम्युनिकेबल डिजीज) यानी गैर संचारी रोग।
एनसीडी की सूची में दिल की बीमारी, हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, कैंसर और मानसिक तनाव शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की हालिया रिपोर्ट इसकी गंभीरता को उजागर करती है। संगठन ने कहा है कि इन बीमारियों से लड़ाई में दुनिया भर की गति धीमी पड़ गई है। स्पष्ट है—खतरा अभी टला नहीं है, बल्कि और गहरा रहा है।
रिपोर्ट का शीर्षक है 'सेविंग लाइव्स, स्पेंडिंग लेस,' यानी 'जिंदगियां बचाइए, ज्यादा पैसा मत खर्च कीजिए।' यही इसकी सबसे दिलचस्प बात है। यह बताती है कि इन बीमारियों से निपटने के लिए भारी बजट की आवश्यकता नहीं है, बल्कि थोड़ी समझदारी भरा निवेश पर्याप्त है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि हर देश केवल 3 डॉलर (लगभग 250 रुपये) प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष इन बीमारियों की रोकथाम और इलाज पर खर्च करे, तो 2030 तक 12 मिलियन (1.2 करोड़) लोगों की जान बचाई जा सकती है। यह कहना भी सही होगा कि सिर्फ एक पिज्जा के बराबर पैसे में एक जान!
लेकिन समस्या यह है कि बहुत से देश अब इस लड़ाई में ढीले पड़ गए हैं। 2010 से 2019 के बीच अधिकतर देशों ने इन बीमारियों से होने वाली मौतों को कुछ हद तक कम किया था, लेकिन अब हालात फिर बिगड़ रहे हैं। कई जगहों पर तो हालात पहले से भी खराब हो रहे हैं।
सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि ये बीमारियां गरीब और मिडिल क्लास देशों में अधिक कहर बरपा रही हैं। हर साल लगभग 75 प्रतिशत मौतें ऐसे देशों में होती हैं, जहां इलाज महंगा है और जागरूकता की कमी है।
डब्ल्यूएचओ उन कारणों को भी बताता है जिनकी वजह से एनसीडी में वृद्धि होती है और मेंटल हेल्थ पर असर पड़ता है। इस रिपोर्ट के अनुसार, चूंकि हमारा जीवनशैली गड़बड़ है—ज्यादा जंक फूड, कम कसरत, नींद की कमी और स्ट्रेस भरी जिंदगी इसका कारण है। डब्ल्यूएचओ स्पष्ट कहता है कि इन कंपनियों का असर नीति बनाने वालों पर भी पड़ता है, जो जरूरी कानूनों को पारित नहीं होने देते।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉ. टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयेसस ने कहा, "गैर-संचारी रोग और मेंटल हेल्थ की स्थिति चुपके से जानलेवा हैं, जो हमारे जीवन और नवाचार को छीन रही हैं। हमारे पास जीवन बचाने और पीड़ा कम करने के साधन हैं। डेनमार्क, दक्षिण कोरिया और मोल्दोवा जैसे देश इस दिशा में अग्रणी हैं, जबकि अन्य देश पीछे छूट रहे हैं। एनसीडी के खिलाफ लड़ाई में निवेश करना सिर्फ एक चतुर अर्थशास्त्र नहीं है—यह एक समृद्ध समाज की आवश्यकता है।"
डब्ल्यूएचओ कहता है कि यदि सरकारें थोड़ी समझदारी दिखाएं और 'बेस्ट बाइज' (अच्छे खरीद) का कॉन्सेप्ट अपनाएं, तो बीमारी पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसका अर्थ है कि तंबाकू पर टैक्स बढ़ाना, बच्चों को जंक फूड के विज्ञापनों से बचाना, शराब की बिक्री पर नियंत्रण करना, और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाना—तो हम इस खतरे को काफी हद तक कम कर सकते हैं।