क्या अफ्रीका की जमीन के नीचे दबी है 'दौलत' और छुपे खजाने ने बदली जियो पॉलिटिक्स?
सारांश
Key Takeaways
- डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो में कोबाल्ट का भंडार है जो इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए आवश्यक है।
- नाइजर का यूरेनियम भू-राजनीतिक समर्थन का प्रतीक है।
- सूडान के संसाधनों पर वैश्विक शक्तियों का ध्यान है।
- अफ्रीका की ताकत अब उसकी खनिज संपत्तियों में है।
- जियोपॉलिटिक्स में बदलाव के लिए ये देश महत्वपूर्ण हो गए हैं।
नई दिल्ली, 26 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। जब हम डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो, नाइजर और सूडान का नाम लेते हैं, तो अक्सर हिंसा, गृह युद्ध, प्राकृतिक आपदा या गरीबी की बातें होती हैं। ये ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी राष्ट्र को कमजोर कर सकते हैं। लेकिन एक सचाई भी है जो इन देशों की खूबसूरती और धन को दर्शाती है। यह सचाई ने जियो पॉलिटिक्स को गहराई से प्रभावित किया है।
इस क्षेत्र में सबसे बड़ा संघर्ष धरती की सतह पर नहीं, बल्कि उसकी गहराइयों में हो रहा है। डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो, नाइजर और सूडान ऐसे देश हैं जिनके अंदर वो संसाधन छिपे हैं जो 21वीं सदी की सबसे बड़ी ताकत बन चुके हैं।
ये अमूल्य संसाधन हैं बैटरी मेटल्स, दुर्लभ खनिज, सोना, यूरेनियम और तेल। क्या यही कारण है कि बड़े देशों की रुचि इन पर केंद्रित है? भविष्य की तकनीक और सैन्य शक्ति अब इस पर निर्भर करती है कि किसके पास ये कच्चा माल है।
कॉन्गो में विश्व का सबसे समृद्ध कोबाल्ट भंडार है, जो इलेक्ट्रिक वाहनों, स्मार्टफोन, ड्रोन और एआई सर्वर में उपयोग होने वाली बैटरियों का मुख्य हिस्सा है। आज की दुनिया में—जहां हर देश इलेक्ट्रिक वाहनों के भविष्य की ओर बढ़ रहा है—वहां कोबाल्ट सोने से भी अधिक मूल्यवान हो गया है।
चीन ने पिछले दो दशकों में कॉन्गो की लगभग 70 प्रतिशत खदानों में निवेश कर दिया है, जिससे पश्चिमी देशों में चिंता बढ़ गई है कि भविष्य की तकनीक पर चीन की पकड़ मजबूत हो जाएगी। अमेरिका और यूरोप अब समय की कमी के बावजूद कॉन्गो में अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि चीन का प्रभाव कम किया जा सके।
नाइजर का मामला भी अलग है। यहां यूरेनियम का बड़ा भंडार है, जिसे लंबे समय से फ्रांस नियंत्रित करता रहा है। हाल के वर्षों में जब सैन्य तख्तापलट हुए, तब नाइजर की रूस के साथ नजदीकियां बढ़ गईं। यूरेनियम केवल बिजली या न्यूक्लियर ऊर्जा नहीं बनाता—यह भू-राजनीतिक शक्ति का प्रतीक है। इसीलिए नाइजर अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां इस छोटे से देश की खदानें बड़े देशों की सामरिक ताकत तय कर रही हैं।
फिर आता है सूडान—जहां तेल, सोना और नए खोजे गए दुर्लभ खनिजों ने पहले से ही बड़े देशों का ध्यान आकर्षित किया है। यहां पिछले कुछ वर्षों में लगातार संघर्ष जारी है, और इस अस्थिरता में रूस, खाड़ी देश और पश्चिमी शक्तियां अपनी-अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। सोने की तस्करी, तेल पर नियंत्रण, सैन्य सहायता और राजनीतिक समर्थन—हर कोई सूडान को अपने पक्ष में करना चाहता है, क्योंकि इस क्षेत्र में प्रभाव जमाना पूरे अफ्रीकी हॉर्न में रणनीतिक लाभ सुरक्षित करने जैसा है।
अफ्रीका के इन देशों पर दुनिया की इतनी रुचि का असली कारण यह है कि अगली तकनीकी क्रांति, स्वच्छ ऊर्जा, एआई इंफ्रास्ट्रक्चर, और उन्नत मिलिट्री हार्डवेयर—इन सबकी रीढ़ यही खनिज हैं। और जब कोई संसाधन दुर्लभ और भविष्य को नियंत्रित करता हो, तो उस पर जियोपॉलिटिक्स तेज हो जाती है। चीन ने “माइनिंग-डिप्लोमेसी” का मॉडल अपनाया है। कम ब्याज ऋण और बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट देकर खदानों में हिस्सेदारी ले ली। रूस सुरक्षा और सैन्य-सहयोग का कार्ड खेल रहा है, जबकि पश्चिमी देश लोकतंत्र, पारदर्शिता और नई निवेश नीतियों की पेशकश करके अपनी वापसी का प्रयास कर रहे हैं।
इस समस्त खेल में सबसे दिलचस्प बात यह है कि अफ्रीका अपने संसाधनों के बल पर पहली बार सच में वैश्विक शक्ति संतुलन को प्रभावित कर रहा है। जिन देशों को कभी उपनिवेशवाद ने आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया था, अब वही देश अपने खनिजों के कारण दुनिया की नई लड़ाई का केंद्र बन गए हैं। आज कॉन्गो का कोबाल्ट, नाइजर का यूरेनियम और सूडान का सोना केवल खनिज नहीं रह गए—बल्कि 21वीं सदी की वैश्विक राजनीति की दिशा तय करने वाले महत्वपूर्ण तत्व बन गए हैं।