क्या 1972 का वन्य जीव संरक्षण अधिनियम भारत के पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है?

सारांश
Key Takeaways
- 1972 का अधिनियम जैव विविधता की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।
- बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है।
- अवैध शिकार पर सख्त दंड का प्रावधान है।
नई दिल्ली, 20 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। वर्ष 1972 में भारत ने पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण के लिए एक ऐतिहासिक कदम उठाया, जब 21 अगस्त को लोकसभा में वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम को स्वीकृति दी गई। यह अधिनियम भारतीय जैव विविधता और वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ।
1970 के दशक तक, भारत में बाघ, गैंडा, हिम तेंदुआ और बारहसिंगा जैसी कई प्रजातियों की संख्या तेजी से घटचिंताजनक थी, जिसका मुख्य कारण अनियंत्रित शिकार और जंगलों की कटाई था। इसके कारण उनकी आबादी 2000 से भी कम रह गई थी। इस संकट को देखते हुए, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सरकार ने वन्य जीव संरक्षण को प्राथमिकता दी।
वन्य जीव संरक्षण अधिनियम को 21 अगस्त 1972 में लोकसभा में पारित किया गया था और यह 9 सितंबर 1972 को लागू हुआ। इस कानून ने देश में वन्य जीवों के अवैध शिकार, तस्करी और उनके आवासों के विनाश को रोकने के लिए एक मजबूत ढांचा प्रदान किया।
इस अधिनियम के पारित होने के बाद, 1973 में 'प्रोजेक्ट टाइगर' की शुरुआत की गई, जिसने बाघों की सुरक्षा के लिए विशेष अभियान प्रारंभ किया। इस अधिनियम के तहत, वन्य जीवों को छह अनुसूचियों में वर्गीकृत किया गया, जिसमें संकटग्रस्त प्रजातियों को सर्वोच्च सुरक्षा दी गई।
राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों और संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना को बढ़ावा दिया गया। अधिनियम ने अवैध शिकार और वन्य जीवों के अंगों की तस्करी पर कड़े दंड का प्रावधान किया। इसके अलावा, यह कानून वन्य जीवों के आवास संरक्षण पर भी जोर देता है, जिसने जंगलों और पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1972 के बाद से, इस अधिनियम ने कई उपलब्धियों को हासिल किया है।
'प्रोजेक्ट टाइगर' के तहत बाघों की संख्या 2022 तक बढ़कर लगभग 3167 हो गई। जिम कॉर्बेट, रणथंभौर और सुंदरबन जैसे राष्ट्रीय उद्यानों ने न केवल वन्य जीवों को आश्रय दिया, बल्कि पर्यटन को भी बढ़ावा दिया। काजीरंगा (असम) में एक सींग वाले गैंडे और केरल के पेरियार में हाथियों की आबादी में भी सुधार देखा गया।
हालांकि, चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। मानव-वन्यजीव संघर्ष, अवैध शिकार, और जलवायु परिवर्तन के कारण कई प्रजातियाँ खतरे में हैं। पर्यावरणविद 1972 के अधिनियम को एक मजबूत नींव मानते हैं, लेकिन इसे और सख्त करने और जमीनी स्तर पर लागू करने की आवश्यकता पर जोर देते हैं।
बाद में, सरकार ने 2006 और 2013 में इस अधिनियम में संशोधन कर इसे और प्रभावी बनाया, जिसमें 'राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड' और 'वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो' की स्थापना भी शामिल है।