क्या डी-डॉलरीकरण की आवाज बुलंद हो रही है? भारत, रूस और चीन की होगी अहम भूमिका: विशेषज्ञ

सारांश
Key Takeaways
- डॉलर का वर्चस्व कम हो रहा है।
- भारत, रूस और चीन की करेंसी का उदय संभव है।
- डी-डॉलरीकरण वैश्विक व्यापार को नया दिशा दे सकता है।
- अमेरिका की अर्थव्यवस्था को चुनौती मिल सकती है।
- मल्टीपोलर वैश्विक व्यवस्था का निर्माण हो रहा है।
नई दिल्ली, 1 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। विशेषज्ञों ने सोमवार को कहा कि समय के साथ डॉलर की स्थिति वैश्विक बाजार में कम होती जाएगी और इसी के साथ अन्य देशों की करेंसी अपना एक अलग वजूद और अस्तित्व स्थापित करेंगी, जिनमें चीन, रूस और भारत जैसे देश शामिल हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि अब अमेरिकी आधिपत्य का युग समाप्त होने जा रहा है।
इन्फोमेरिक्स रेटिंग्स के चीफ इकोनॉमिस्ट डॉ. मनोरंजन शर्मा ने न्यूज एजेंसी राष्ट्र प्रेस से कहा, "आज हम एक मल्टीपोलर वैश्विक व्यवस्था का हिस्सा बन गए हैं, जिसमें ताकत के कई बिंदु हैं जैसे अमेरिका, भारत, रूस, चीन, इंग्लैंड, जर्मनी और जापान। इस मल्टीपोलर वर्ल्ड में किसी एक आधिपत्य होना संभव नहीं होगा।"
डी-डॉलरीकरण को लेकर शर्मा ने कहा कि पिछले 7-8 दशकों से डॉलर का आधिपत्य रहा है, लेकिन अब कई अन्य देश अपनी जगह बनाने के लिए प्रयासरत हैं, जिसके साथ डी-डॉलरीकरण की आवाज बुलंद हुई है। इसमें भारत, रूस और चीन की भूमिका महत्वपूर्ण है।
उन्होंने कहा, "कई अन्य देशों की भी कोशिश है कि किसी एक वैकल्पिक मुद्रा को डॉलर के खिलाफ लाया जाए। यह ब्रिक्स की करेंसी हो सकती है या राष्ट्र अपने-अपने देशों की करेंसी में व्यापार करने पर विचार कर सकते हैं। इससे डॉलर को निश्चित रूप से एक झटका लगेगा।"
शर्मा ने उल्लेख किया कि पिछले 10 वर्षों में रूस और चीन का 90 प्रतिशत व्यापार स्थानीय मुद्रा में स्थानांतरित हो गया है, और यह अमेरिका के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है।
उन्होंने कहा, "हालांकि, इसमें कुछ ऑपरेशनल बाधाएं आती हैं। भारत का चीन और रूस से आयात ज्यादा है और निर्यात कम है। समस्या यह भी है कि हम रूस से तेल के अलावा डिफेंस इक्विपमेंट भी लेते हैं, हालांकि, भारतीय रुपया या रूस और चीन की करेंसी की उतनी स्वीकार्यता अभी तक नहीं बनी है। ऐसे में सभी अमेरिका के खिलाफ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन इसमें कुछ समय लगेगा।"
इकोनॉमिक्स एक्सपर्ट प्रबीर कुमार सरकार ने राष्ट्र प्रेस से कहा कि रूस, चीन, भारत और अन्य देशों की अपनी करेंसी को आगे लाने की कोशिशें अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को समाप्त कर देंगी। समय के साथ धीरे-धीरे डॉलर का प्रभाव समाप्त होने लगेगा। अगर सभी बड़े देश डी-डॉलरीकरण की ओर बढ़ेंगे तो विश्व व्यापार में अमेरिकी डॉलर की प्रभावशीलता कम होने लगेगी, जो निश्चित रूप से अमेरिका के लिए चिंता का विषय है।
उन्होंने कहा, "अमेरिका आज भी विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में जाना जाता है। हालाँकि, भारत और चीन, जो मिलकर दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा बनाते हैं, मिलकर आएं तो यह निश्चित रूप से अमेरिका के लिए अच्छा नहीं होगा। ट्रंप टैरिफ के कारण विश्व के कई बड़े देश एक साथ आएंगे और देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार भी बढ़ जाएंगे। यह स्थिति अमेरिका के लिए एक चौतरफा परेशानी के रूप में उभर सकती है।"