क्या हिमालय एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है? समाज को भूकंप के साथ जीना सीखना होगा : हर्ष गुप्ता

सारांश
Key Takeaways
- हिमालय क्षेत्र भूकंपीय गतिविधियों के लिए संवेदनशील है।
- भूकंप के प्रति जागरूकता जरूरी है।
- शिक्षा में भूकंप के प्रभावों पर ध्यान देना चाहिए।
- भविष्य में भूकंप की संभावना को नकारा नहीं किया जा सकता।
- विज्ञान और तकनीक का उपयोग आवश्यक है।
नैनीताल, 6 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। उत्तराखंड के नैनीताल में स्थित कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग और जियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया, बेंगलुरु द्वारा 'हिमालय की भू-गतिकीय उत्क्रांति, क्रस्टल संरचना, जलवायु, संसाधन एवं आपदा' विषय पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। यह सम्मेलन विश्वविद्यालय के हरमिटेज भवन में स्थित देवदार सभागार में हुआ, जिसमें पहले दिन देश-विदेश के प्रख्यात भूवैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने भाग लिया।
सम्मेलन में मुख्य वक्ता के रूप में पद्मश्री हर्ष गुप्ता ने हिमालय की भूकंपीय संवेदनशीलता को लेकर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा, “हिमालय एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है, जहाँ भूकंप का आना निश्चित है।”
उन्होंने 2005 के मुजफ्फराबाद भूकंप (7.6 तीव्रता) में 82 हजार और 2010 के हैती भूकंप में 3 लाख 20 हजार लोगों की मृत्यु का उदाहरण देते हुए भूकंप की भयावहता को रेखांकित किया।
हर्ष गुप्ता ने जोर देकर कहा कि समाज को भूकंप के साथ जीना सीखना होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि स्कूल स्तर पर बच्चों को भूकंप के कारण, प्रभाव और बचाव के उपायों की शिक्षा दी जानी चाहिए। 1950 के बाद हिमालय में 8 तीव्रता का भूकंप नहीं आया, लेकिन 2015 में 7.8 तीव्रता का भूकंप आया था। यदि भविष्य में 8 तीव्रता का भूकंप आता है, तो व्यापक तबाही की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के निदेशक डॉ. विनीत कुमार गहलोत ने कहा कि कुमाऊं और गढ़वाल हिमालय के सबसे संवेदनशील क्षेत्र हैं। पिछले 300-400 वर्षों में यहां कोई बड़ा भूकंप नहीं आया, जिसके कारण खतरा बढ़ गया है।
उन्होंने चेतावनी दी कि नैनीताल सहित कई क्षेत्र भूकंप के दृष्टिकोण से अति संवेदनशील हैं। विशेष रूप से भवन निर्माण में भूकंप रोधी मानकों का पालन नहीं होता।
डॉ. गहलोत ने बताया कि 20 से अधिक अत्याधुनिक उपकरणों के माध्यम से भूकंप की निरंतर निगरानी की जा रही है, ताकि जोखिम का पूर्वानुमान लगाया जा सके। उन्होंने जलवायु परिवर्तन को भी खतरे का एक प्रमुख कारक बताया और उत्तराखंड के धराली क्षेत्र को ताजा उदाहरण बताया।
कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. डीएस. रावत ने कहा कि यह सम्मेलन भू-गतिकीय अध्ययन और आपदा प्रबंधन पर केंद्रित है। भूकंप और बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं बढ़ रही हैं। इस तरह के सम्मेलन विद्यार्थियों को शोध और तकनीकी दृष्टिकोण से सशक्त करेंगे, जिससे भविष्य में जानमाल की हानि को कम किया जा सके।
सम्मेलन में विशेषज्ञों ने भूकंप से संबंधित वैज्ञानिक तथ्यों को साझा करने के साथ-साथ जागरूकता, तैयारी और तकनीकी सुदृढ़ीकरण को आपदा प्रबंधन का मूल आधार बताया।
यह सम्मेलन न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देगा, बल्कि नीति निर्माताओं और आम जनता को प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए जागरूक और तैयार करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।