क्या उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद्र' ने हिंदी साहित्य में अद्वितीय योगदान दिया?
 
                                सारांश
Key Takeaways
- प्रेमचंद्र का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था।
- उन्होंने हिंदी साहित्य को नई दिशा दी।
- उनकी रचनाएँ आज भी समाज के लिए प्रेरणादायक हैं।
- प्रेमचंद्र की प्रमुख कृतियों में सेवासदन और गोदान शामिल हैं।
- उनका जीवन संघर्ष और साहित्य का अनूठा संगम है।
नई दिल्ली, 30 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। धनपत राय श्रीवास्तव, जिन्हें प्रेमचंद्र के नाम से जाना जाता है, को उपन्यास सम्राट और कलम का जादूगर कहा जाता है। उन्होंने हिंदी कहानी के यथार्थ को केवल धरातल पर ही नहीं लाया, बल्कि अपने अनुभवों से उसे और भी समृद्ध किया। आगे चलकर वे हिंदी और उर्दू के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार और विचारक बन गए।
मुंशी प्रेमचंद्र का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी आजायबराय और माता का नाम आनंदी देवी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा काशी की धरती से प्रारंभ हुई और वहीं से उन्होंने अपनी साहित्य साधना की शुरुआत भी की। प्रसिद्ध बंगाली उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने मुंशी प्रेमचंद्र को उपन्यास सम्राट की उपाधि दी।
प्रेमचंद्र जब केवल सात वर्ष के थे, तब उनकी माँ का निधन हो गया। इसके बाद, उनके पिता ने दूसरी शादी की, लेकिन सौतेली माँ और प्रेमचंद्र का संबंध कभी अच्छा नहीं रहा। जब प्रेमचंद्र 15 वर्ष के हुए, तो उनकी सौतेली माँ ने उनके लिए एक ऐसी लड़की से शादी तय की, जिसे वे पसंद नहीं करते थे। इस शादी के बाद उनके पिता का निधन हुआ, और उनका जीवन संघर्षों में बीतने लगा।
प्रेमचंद्र ने खुद बताया कि उनकी सौतेली माँ ने जानबूझकर उनकी शादी एक बदसूरत और झगड़ालू लड़की से कराई। यह विवाह अपेक्षित रूप से टूट गया। इसके बाद, उन्होंने 1906 में शिवरानी देवी
दूसरी शादी उनके लिए सुखद साबित हुई और उन्होंने स्कूल में डिप्टी इंस्पेक्टर का पद हासिल किया। इस दौरान उन्होंने अपनी पहली कहानी संग्रह सोजे वतन प्रकाशित किया।
अगर हम प्रेमचंद्र की साहित्यिक यात्रा पर नज़र डालें, तो यह 1901 में शुरू हुई। प्रारंभ में, वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लेखन करते थे। उनकी पहली रचना अप्रकाशित रही, जो संभवतः एक नाट्य रचना थी। उनका पहला प्रकाशित लेख उर्दू उपन्यास असरारे मआबिद था, जिसे बाद में हिंदी में देवस्थान रहस्य के नाम से अनुवादित किया गया।
उनका पहला कहानी संग्रह सोजे वतन 1908 में प्रकाशित हुआ, जो देशभक्ति की भावना से भरा था। इस पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा दिया और इसकी सभी प्रतियां जब्त कर लीं।
1918 में प्रेमचंद्र का जीवन एक नए मोड़ पर आया, जब उनका हिंदी उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ। इस कृति ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। इस समय को प्रेमचंद्र युग कहा जाता है।
प्रेमचंद्र की प्रमुख कृतियों में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि शामिल हैं। उनके द्वारा लिखी गई कहानियों की संख्या तीन सौ से अधिक है, जिनमें से अधिकांश हिंदी और उर्दू दोनों में प्रकाशित हुई हैं।
उन्होंने अपने समय के सभी प्रमुख उर्दू और हिंदी पत्रिकाओं में लेख प्रस्तुत किए। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण और साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन भी किया।
प्रेमचंद्र अपने पिता की तरह पेचिश रोग से पीड़ित थे और उनके अंतिम दिनों में स्वास्थ्य खराब रहने लगा। 1936 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। आज, भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, उनकी कृतियाँ हमेशा आधुनिक लेखकों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेंगी।
 
                     
                                             
                                             
                                             
                                            