क्या प्रेमनाथ ने 100 रुपए में बंदूक नहीं, सपने खरीदे और मुंबई भागने का किस्सा जानें?
सारांश
Key Takeaways
- प्रेमनाथ का संघर्ष और सपनों को पूरा करने की कहानी प्रेरणादायक है।
- उन्होंने मुंबई जाकर अपने करियर की शुरुआत की।
- राजकपूर से दोस्ती ने उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ लाया।
- बीना राय के साथ उनकी प्रेम कहानी भी चर्चित रही।
- प्रेमनाथ ने अपने करियर में विलेन के रूप में खास पहचान बनाई।
नई दिल्ली, 20 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। हिंदी सिनेमा के इतिहास में प्रेमनाथ मल्होत्रा एक ऐसा नाम है, जिसकी शख्सियत और जीवन-गाथा दोनों ही बेहद दिलचस्प हैं। उन्होंने हीरो बनने का सपना देखा, लेकिन अंततः उन्हें एक विलेन के रूप में पहचान मिली, जिसे समय कभी भुला नहीं सका।
21 नवंबर 1926 को जन्मे प्रेमनाथ का बचपन और युवा दिनों में कई कठिनाइयाँ आईं। जब भारत का विभाजन हुआ, तब उनका परिवार मध्य प्रदेश के जबलपुर में बस गया। उनके पिता एक पुलिस अफसर थे, जिससे उन्हें घर से ही अनुशासन मिला और उन्होंने बेटे को सेना में भेजने का निर्णय लिया। लेकिन प्रेमनाथ का मन तो फिल्मों में ही लगा था।
इसी चाह ने एक दिन उन्हें ऐसा कदम उठाने पर मजबूर किया, जिसकी मिसाल कम ही मिलती है। उन्होंने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें कहा, 'मुझे 100 रुपए चाहिए, बंदूक खरीदनी है।' पैसे मिले, लेकिन उन्होंने बंदूक खरीदने के बजाय उन पैसों को लेकर सपनों की नगरी मुंबई का रुख किया और सीधे पृथ्वीराज कपूर के पास पहुंचे। उन्होंने थिएटर का हिस्सा बनने की इच्छा व्यक्त की। पृथ्वीराज कपूर ने उनकी इच्छा को मानते हुए उन्हें अपने थिएटर में जगह दी।
यहां उनकी दोस्ती राजकपूर से हुई, जो बाद में रिश्तेदारी में तब्दील हुई। जबलपुर की एक यात्रा ने यह अध्याय समाप्त किया। राजकपूर ने पहली बार प्रेमनाथ की बहन कृष्णा से मिले और प्रेम की कहानी ने आगे बढ़ने का रास्ता बना लिया। बाद में दोनों ने शादी की, जिससे प्रेमनाथ रणधीर कपूर, ऋषि कपूर और राजीव कपूर के मामा बन गए।
फिल्म की शुरुआत 1948 की 'अजीत' से हुई। इसके बाद राजकपूर की 'आग' और 'बरसात' ने उन्हें पहचान दिलाई। उनकी ऊंची कद-काठी, रौबीली आवाज और संवाद-कौशल ने उन्हें खास बना दिया। उनकी शुरुआत हीरो के रूप में हुई, लेकिन किस्मत ने उन्हें हिंदी सिनेमा के सबसे प्रभावशाली विलेन में बदल दिया।
कामयाबी के इस दौर में उनकी जिंदगी में खूबसूरत अभिनेत्री बीना राय आईं। दोनों ने फिल्म 'औरत' में साथ काम किया और दोनों के बीच प्रेम हो गया। शादी के बाद उन्होंने 'पी.एन. फिल्म्स' नाम से अपना प्रोडक्शन हाउस खोला। इस प्रोडक्शन हाउस से 'शगूफा' (1953), 'समंदर' और 'चंगेज खान' जैसी फिल्में बनीं, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर वे उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं हो पाईं।
धीरे-धीरे प्रेमनाथ के करियर का ग्राफ गिरने लगा, जबकि बीना राय की फिल्मों को अच्छी सफलता मिल रही थी। इस मोड़ पर प्रेमनाथ ने वह निर्णय लिया, जिसे कोई भी सफल अभिनेता लेने में हिचकता। उन्होंने 14 साल तक फिल्मों से दूरी बनाकर रखी और इस समय का उपयोग यात्राओं, आध्यात्मिकता और धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में किया।
लंबे विराम के बाद प्रेमनाथ देवानंद की ब्लॉकबस्टर फिल्म 'जॉनी मेरा नाम' से शानदार अंदाज में लौटे। इसके बाद उन्होंने 'रोटी, कपड़ा और मकान', 'शोर', 'बॉबी' जैसी फिल्मों में ऐसे किरदार निभाए कि दर्शक दंग रह गए। मशहूर फिल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर सुभाष घई भी उनके अभिनय के मुरीद हो गए।
फिल्में 'विश्वनाथ' और 'गौतम गोविंदा' भी उनके अभिनय की याद दिलाती हैं। एक और जबरदस्त फिल्म 'धर्मात्मा' में उन्होंने अपने किरदार से जलवे दिखाए।
एक उम्र के बाद उन्होंने ऐसे रोल निभाए, जिनका आज भी कोई सानी नहीं। फिर वह दिन आया जब 65 साल की उम्र में 3 नवंबर 1992 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।