क्या आरजेडी सांसद मनोज झा ने राज्यसभा सांसदों को पत्र लिखकर मनरेगा को खत्म करने के कदम का विरोध किया?
सारांश
Key Takeaways
- मनोज झा ने मनरेगा को खत्म करने के कदम का विरोध किया।
- मनरेगा गरीबों के लिए एक महत्वपूर्ण रोजगार गारंटी है।
- सरकार के प्रस्ताव से रोजगार के अवसर कम हो सकते हैं।
- महात्मा गांधी के सिद्धांतों का उल्लेख किया गया।
- इस मुद्दे पर सभी सांसदों से एकजुटता की अपील की गई।
नई दिल्ली, 18 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को समाप्त करने और उसकी जगह 'विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार और आजीविका मिशन (ग्रामीण) विधेयक, 2025' लाने के केंद्र सरकार के प्रस्ताव के खिलाफ राजनीतिक क्षेत्रों में नाराजगी बढ़ती जा रही है। इसी संदर्भ में आरजेडी के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने गुरुवार को सभी सांसदों को एक विस्तृत पत्र लिखकर इस कदम का विरोध किया है, इसे गरीबों के हितों पर कुठाराघात बताते हुए।
मनोज झा ने अपने पत्र की शुरुआत गांधीजी के 'ताबीज' की याद दिलाते हुए की। उन्होंने लिखा कि हममें से कई लोगों को अपनी स्कूल की किताबों का पहला पन्ना याद होगा, जिस पर गांधीजी का ताबीज छपा था। उन्होंने कहा था कि हम उस सबसे गरीब और कमजोर इंसान का चेहरा याद रखें जिसे हमने देखा है और खुद से पूछें कि जो काम हम करने वाले हैं, क्या वह उस इंसान के लिए फायदेमंद होगा? क्या इससे उसे अपनी जिंदगी पर दोबारा कंट्रोल मिल पाएगा? उनका मानना था कि अगर हमारा काम इस कसौटी पर खरा उतरता है, तो सारे शक दूर हो जाएंगे। यह ताबीज पब्लिक लाइफ के हर फैसले में गाइड करने के लिए था। मैं आज आपको उसी सिद्धांत को ध्यान में रखकर लिख रहा हूं।
उन्होंने कहा कि 15 दिसंबर को सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को समाप्त करने और उसकी जगह विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार और आजीविका मिशन (ग्रामीण) बिल, 2025 लाने के लिए एक बिल पेश किया, जबकि लोकसभा में देर रात तक इस पर चर्चा हुई। मैं आपसे हमारे सदन में इस कदम का विरोध करने का आग्रह करता हूं।
मनोज झा ने कहा कि यह अपील किसी पार्टी के पक्ष में नहीं है। मनरेगा 2005 में सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के समर्थन से लागू किया गया था। तब सदन ने एक साझा संवैधानिक ज़िम्मेदारी को माना था कि सम्मान के साथ काम करने का अधिकार हमारे लोकतंत्र का एक जरूरी हिस्सा है। संविधान का अनुच्छेद 41 राज्य को काम के अधिकार को सुरक्षित करने और बेरोज़गारी और ज़रूरतमंदों को पब्लिक मदद देने का निर्देश देता है। मनरेगा ने इस निर्देश को एक कानूनी गारंटी में बदल दिया। प्रस्तावित बिल उस गारंटी को खत्म कर देता है।
उन्होंने कहा कि सरकार का दावा है कि नया फ्रेमवर्क 100 दिनों के बजाय 125 दिनों का काम देगा। यह दावा गुमराह करने वाला है। मनरेगा, जो डिमांड पर आधारित था, उसके उलट नया बिल रोजगार को केंद्र सरकार के फंड और प्रशासनिक फैसलों पर निर्भर बनाता है। इसका कवरेज अब यूनिवर्सल नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार द्वारा नोटिफाइड इलाकों तक ही सीमित है। ऐसे समय में जब मनरेगा मजदूरों को भी अपर्याप्त फंडिंग के कारण सालाना सिर्फ 50-55 दिन का काम मिलता था, बिना पक्के संसाधनों के अतिरिक्त दिनों का वादा भरोसेमंद नहीं है। इसके अलावा, प्रस्तावित लागत-बंटवारे की व्यवस्था, जिसमें राज्यों को 40 प्रतिशत खर्च उठाना होगा, कई राज्यों पर एक असहनीय बोझ डालेगी, जिससे लोगों को बाहर किया जाएगा और काम कम होगा।
राजद सांसद ने कहा कि मनरेगा में कमियां हैं, लेकिन वे लागू करने में नाकामियों के कारण हैं, न कि कानून की वजह से। दो दशकों से ज्यादा समय में इसने मुश्किल समय में जरूरी मदद दी है, वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई है और काम को एक अधिकार के तौर पर, न कि एहसान के तौर पर, मानने के सिद्धांत को बनाए रखा है। इसे मजबूत किया जा सकता था और किया जाना चाहिए था। बिना सलाह-मशविरे या सहमति के इसे खत्म करना सुधार नहीं है, यह संवैधानिक जिम्मेदारी से पीछे हटना है।
राजद सांसद ने आगे कहा कि मैं आपसे अपील करता हूं कि लोकतांत्रिक सहमति और नैतिक स्पष्टता से बने इस कानून का बचाव करें। आइए, हम इस सिद्धांत पर कायम रहें कि हर हाथ को काम मिलना चाहिए और हर मजदूर को सम्मान मिलना चाहिए। हमारे देश के सबसे गरीब नागरिक हमारे फैसलों को देख रहे हैं।