क्या सारागढ़ी की गाथा में 21 सिखों ने अमर शौर्य का इतिहास रचा?

सारांश
Key Takeaways
- सारागढ़ी का युद्ध बलिदान और साहस का प्रतीक है।
- 21 सिख जवानों ने अद्वितीय साहस का परिचय दिया।
- यह युद्ध ब्रिटिश भारतीय सेना की एक महत्वपूर्ण घटना है।
- भारत सरकार ने युद्ध के शहीदों को सम्मानित किया।
- इस युद्ध ने भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट की वीरता को दर्शाया।
नई दिल्ली, 11 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। इतिहास के पन्नों में अनेक युद्ध दर्ज हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही ऐसे हैं जिन्हें विश्वभर में सम्मान मिलता है। 12 सितंबर - यह तारीख केवल एक युद्ध की बरसी नहीं है, बल्कि शौर्य, कर्तव्य और बलिदान का प्रतीक है जिसे पूरी दुनिया सलाम करती है। 1897 में लड़ा गया सारागढ़ी का युद्ध उन्हीं में से एक है। भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट हर वर्ष इस दिन को रेजीमेंटल बैटल ऑनर्स डे के रूप में मनाती है, जबकि ब्रिटिश सेना भी इसे 21 सैनिकों के आत्मबलिदान की अद्वितीय मिसाल मानकर श्रद्धांजलि देती है।
सारागढ़ी, जो आज के पाकिस्तान के खैबर पख़्तूनख्वा क्षेत्र में स्थित है, सामाना पर्वत श्रृंखला पर एक छोटा-सा गांव था। यह किला लॉकहार्ट और गुलिस्तान किलों के बीच संचार व्यवस्था बनाए रखने के लिए स्थापित एक चौकी पोस्ट था। ब्रिटिश भारतीय सेना की 36वीं सिख रेजिमेंट (जो पूरी तरह जाट सिखों से बनी थी) को यहां तैनात किया गया था। यह क्षेत्र अफगान और पठान जनजातियों के हमलों से हमेशा अस्थिर रहा है। अगस्त 1897 से लगातार कबीलों के हमले तेज हो गए थे और कई बार ब्रिटिश चौकियों पर कब्ज़ा करने की कोशिशें नाकाम हुई थीं।
12 सितंबर 1897 को सुबह करीब 9 बजे 12 से 14 हजार पठानों ने सारागढ़ी पोस्ट को घेर लिया। चौकी पर केवल 21 सिख जवान थे। उन्होंने पीछे हटने के बजाय अंत तक लड़ने का संकल्प लिया। पूरा क्षेत्र उनके जयघोष से गूंज उठा, 'बोले सो निहाल, सत श्री अकाल!'
इन वीरों ने दो बार पठानों को पीछे हटने पर मजबूर किया। लेकिन जब दीवारें टूटने लगीं, तो हवलदार ईशर सिंह ने अपने साथियों को भीतर जाने का आदेश दिया और स्वयं मोर्चे पर डटे रहे। एक-एक करके सभी जवान शहीद होते गए लेकिन उन्होंने दुश्मनों को भारी क्षति पहुंचाई।
सबसे पहले सिपाही भगवान सिंह शहीद हुए। नायक लाल सिंह गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी लड़ते रहे। अंत में बचे सिपाही गुरमुख सिंह थे, जिन्होंने लड़ते-लड़ते लगभग 40 दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया। जब उन्हें रोकना असंभव हो गया, तो दुश्मनों ने चौकी को आग लगा दी। जलती हुई चौकी से उनकी आखिरी पुकार गूंजी, 'बोले सो निहाल, सत श्री अकाल!'
स्थिति ऐसी हो गई कि पठानों ने चौकी को तो ढहा दिया, लेकिन उनकी इतनी ताकत और समय बर्बाद हुआ कि वे गुलिस्तान किले पर कब्ज़ा नहीं कर पाए। रात में वहां मदद पहुंच गई और किला बचा लिया गया। इतिहासकारों के अनुसार इस युद्ध में 600 से अधिक पठान मारे गए और सैकड़ों घायल हुए। राहत दल जब पहुंचा, तो चौकी के आसपास लगभग 1400 शव बिखरे पड़े थे।
भारत सरकार ने इन बलिदानों की स्मृति में स्मारक बनवाया और उन्हें इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट (उस दौर का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, जो आज के परमवीर चक्र के समकक्ष है) से मरणोपरांत सम्मानित किया।