क्या बांग्ला साहित्य की नायिका आशापूर्णा देवी नारी चेतना की मशाल हैं?

सारांश
Key Takeaways
- नारी चेतना की महत्वपूर्ण चित्रण
- सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ विद्रोह
- महिलाओं के अधिकारों की आवाज उठाना
- साहित्य में संवेदनशीलता का विकास
- आधुनिक नारी की पहचान
नई दिल्ली, 12 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। आशापूर्णा देवी बांग्ला साहित्य की एक अद्वितीय हस्ती हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से न केवल साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि समाज में महिलाओं की स्थिति और उनके संघर्षों को एक नई पहचान दी। उनकी रचनाएं नारी चेतना, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ विद्रोह और मानवीय संवेदनाओं का जीवंत चित्रण करती हैं।
आशापूर्णा देवी का जन्म 8 जनवरी 1909 को पश्चिम बंगाल के कलकत्ता में हुआ। औपचारिक शिक्षा की कमी के बावजूद, उनकी साहित्यिक प्रतिभा ने उन्हें एक असाधारण लेखिका बना दिया। बचपन में उन्हें पढ़ने और लिखने के अनेक अवसर मिले। उनके घर में नियमित रूप से बांग्ला पत्रिकाओं का अध्ययन उनके लेखन की नींव बना। उन्होंने 13 वर्ष की आयु में लेखन की शुरुआत की और जीवनभर साहित्य रचना में संलग्न रहीं। कला और साहित्यिक परिवेश ने उनमें संवेदनशीलता को विकसित किया।
आशापूर्णा देवी को 1976 में उनकी कृति प्रथम प्रतिश्रुति के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ, जो उन्हें पहली भारतीय महिला लेखिका बनाता है। इसके अतिरिक्त, उन्हें पद्मश्री और साहित्य अकादमी फेलोशिप जैसे अन्य पुरस्कार भी मिले। उन्होंने 30 से अधिक उपन्यास और कई कहानियां एवं कविताएं लिखीं।
उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति सत्यबती त्रयी (प्रथम प्रतिश्रुति, सुबर्णलता, और बकुल कथा) में तीन पीढ़ियों की महिलाओं के जीवन को प्रदर्शित किया गया है, जो 20वीं सदी के ग्रामीण और शहरी बंगाल के सामाजिक परिवर्तनों को दर्शाती है।
उनके उपन्यासों में महिलाओं की स्थिति, उनके सपने, और सामाजिक बंधनों के खिलाफ उनकी खामोश विद्रोह को बखूबी चित्रित किया गया है। जब महिलाओं का दायरा रसोई तक सीमित था, आशापूर्णा की नायिकाएं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं। उनकी लेखनी में नारीवाद की गहरी समझ दिखाई देती है, जो रूढ़ियों को चुनौती देती है। प्रथम प्रतिश्रुति में उन्होंने बाल विवाह और स्त्री शिक्षा जैसे समाजिक मुद्दों को उठाया, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
आशापूर्णा की रचनाएं न केवल मनोरंजन करती हैं, बल्कि समाज को आईना दिखाती हैं। उनकी कहानियां और उपन्यास सामाजिक कुरीतियों, जैसे दहेज, लैंगिक असमानता और पारिवारिक दबाव, पर तीखा प्रहार करते हैं। उनकी शैली सहज, संवेदनशील और गहरी थी, जो पाठकों को अंतर्मन तक प्रभावित करती है। उनके कार्यों का अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है, जिसने उनकी पहुंच को और विस्तारित किया।
आशापूर्णा देवी ने अपने साहित्य के माध्यम से नारी सशक्तीकरण की नींव रखी। उनकी लेखनी आज भी नई पीढ़ी को प्रेरित करती है कि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाएं और सामाजिक बंधनों को तोड़ें। बंगाली साहित्य में उनका योगदान अतुलनीय है, और वे हमेशा एक ऐसी लेखिका के रूप में याद की जाएंगी, जिन्होंने अपनी कलम से समाज को बदलने की कोशिश की।
वह 13 जुलाई 1995 को इस दुनिया को छोड़ गईं, लेकिन उनकी साहित्यिक विरासत आज भी लोगों के दिलों में जीवित है।