क्या बीना दास और राजगुरु स्वतंत्रता संग्राम के दो सूर्य हैं?

सारांश
Key Takeaways
- बीना दास और राजगुरु का साहसिक कार्य हमारे लिए प्रेरणा है।
- स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका अविस्मरणीय है।
- आज के युवा इनकी कहानियों से प्रेरित हो सकते हैं।
- इनका बलिदान देश के प्रति प्रेम का प्रतीक है।
- हमारे लिए यह ज़रूरी है कि हम अपने इतिहास को याद रखें।
नई दिल्ली, 23 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। 24 अगस्त का दिन उन दो अद्वितीय क्रांतिकारियों को याद करने का अवसर है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति भारत की स्वतंत्रता के लिए दी। इनमें वीरांगना बीना दास और शहीद शिवराम हरि राजगुरु शामिल हैं, जिनकी प्रेरणादायक गाथाएं आज भी युवाओं में जोश और देशभक्ति का संचार करती हैं।
बीना दास का जन्म 24 अगस्त 1911 को बंगाल में हुआ। उनके परिवार में समाज सेवा का गहरा संस्कार था। उनके माता-पिता सामाजिक कार्यकर्ता रहे और उनके भाई भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थे। इस माहौल ने उन्हें राष्ट्रवाद और स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित किया।
उनके पिता के छात्र सुभाष चंद्र बोस अक्सर उनके घर आते थे और उनके विचारों से बीना को प्रेरित करते थे। किशोरावस्था में ही उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचारों का विरोध करना शुरू कर दिया था।
एक बार जब वायसरॉय की पत्नी उनके स्कूल आईं, तो छात्रों से चरणों में फूल बिछाने को कहा गया। बीना ने इसे अपमान समझा और विरोध में वहां से चली गईं। उसी दिन उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने का संकल्प किया।
1920 के दशक के अंत में, जब साइमन कमीशन के खिलाफ देशभर में विरोध हो रहा था, बीना दास बेथ्यून कॉलेज की छात्रा थीं। वहाँ उन्होंने अपनी बहन द्वारा स्थापित 'छात्री संघ' में भाग लिया। अपने संस्मरण में बीना ने लिखा, "बंगाल के युवा आगे आए, घातक हथियारों और विद्रोह की आग के साथ, वे अत्याचारियों को उनकी करतूतों के लिए जागरूक करना चाहते थे।"
वे भूमिगत क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न हो गईं और डायोसीसन कॉलेज में स्थानांतरित हो गईं। "करो या मरो" का विचार, जो 1942 में एक आंदोलन का नारा बना, उससे पहले बंगाल की युवा पीढ़ी इसी भावना से प्रेरित थी।
6 फरवरी 1932 को, जब उन्हें पता चला कि बंगाल के राज्यपाल सर स्टेनली जैक्सन दीक्षांत समारोह में आ रहे हैं, तो उन्होंने विरोध का निर्णय लिया। अपने सहयोगी से रिवॉल्वर मंगवाकर, उन्होंने समारोह के दौरान राज्यपाल पर 5 गोलियां चलाईं। हालांकि, उनका प्रयास विफल रहा, लेकिन उनके साहस ने राष्ट्र पर गहरा प्रभाव डाला।
उन्हें 9 वर्षों की कठोर कारावास की सजा हुई, जहां उन्होंने अमानवीय यातनाओं का सामना किया लेकिन अपने सहयोगियों का नाम नहीं उजागर किया। जेल से रिहा होने के बाद भी, वे आंदोलन से पीछे नहीं हटीं।
राजगुरु, एक महान क्रांतिकारी, जिनके सीने में हिंदुस्तान की स्वतंत्रता की ज्वाला जल रही थी। उन्होंने कहा था, "मैं इस दुनिया से चला जाऊंगा, लेकिन मेरी मृत्यु एक नई क्रांति को जन्म देगी।"
राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को खेड़ (महाराष्ट्र) में हुआ। उनके पिता का निधन जब वे 6 वर्ष के थे, तब हुआ। बड़े भाई ने परिवार का पालन-पोषण किया। शिवराम एक प्रतिभाशाली बालक थे, उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का निश्चय कर लिया।
राजगुरु ने 16 वर्ष की आयु में देशभक्ति के जज्बे के साथ घर छोड़ दिया। भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद उनके आदर्श थे।
राजगुरु का क्रांतिकारी उत्साह देश के प्रति समर्पण से प्रेरित था। 23 मार्च 1931 को उन्हें भगत सिंह और सुखदेव के साथ फांसी दी गई। उनके बलिदान ने पूरे देश को प्रेरित किया।