क्या देवी विसर्जन सम्मान और भक्ति का प्रतीक है? मां की 'विदाई' में छुपा है खास संदेश

सारांश
Key Takeaways
- देवी दुर्गा का विसर्जन एक धार्मिक अनुष्ठान है।
- यह श्रद्धा और प्रेम का प्रतीक है।
- सिंदूर खेला परंपरा का हिस्सा है।
- मां की विदाई अगले साल की वापसी का वादा है।
- यह बांग्ला संस्कृति की गहराई को दर्शाता है।
नई दिल्ली, 30 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। देवी दुर्गा का विसर्जन बांग्ला संस्कृति का एक बेहद भावनात्मक और धार्मिक अनुष्ठान है। दुर्गा पूजा का यह अंतिम दिन, जिसे विसर्जन कहा जाता है, केवल मूर्ति को जल में प्रवाहित करने का कार्य नहीं है, बल्कि यह श्रद्धा, प्रेम और सांस्कृतिक प्रतीक से भरा हुआ होता है।
विसर्जन के समय बोले जाने वाले शब्दों में भी दुख के साथ हर्ष का मिश्रण होता है। बांग्लाभाषी समुदाय के हर कोने में, विसर्जन के दौरान मां पर अपना हक जताते हुए शुभकामनाएं दी जाती हैं और यह वादा लिया जाता है कि अगले वर्ष आप फिर आएंगी। लोग कहते हैं, 'बोलो मां, शोर्गो तुमाय धनो, आश्चे बोरोश आबार आशबे तुमी,' यानी 'हे मां, आपको स्वर्ग की शुभकामनाएं, आप अगले साल फिर आएंगी।'
एक और साधारण सी पंक्ति है, लेकिन इसमें भाव छिपा हुआ है। लोग कहते हैं, 'जॉय मां दुर्गे, फिरे आशबेन आबार,' जिसका अर्थ है 'जय मां दुर्गा, आप अगले साल फिर लौटकर आएंगी।'
यह शब्द केवल शुभकामना नहीं, बल्कि देवी के प्रति सम्मान और प्रेम प्रदर्शित करने का एक मौका है। इसमें गहरी भक्ति और प्रेम की झलक है। अस्थाई विदाई का भी संदेश है। देवी उपासक हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि यह अंत नहीं है, बल्कि अगले साल दुर्गा पूजा के लिए वापसी का आग्रह है।
विजय दशमी पर विसर्जन से पहले, सुहागिनें एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं, इसे सिंदूर खेला कहा जाता है। पश्चिम बंगाल और पूर्वी भारत में, महिलाएं एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर यह संकेत देती हैं कि मां दुर्गा अब अपने मायके से लौट रही हैं और उनके घर में सुख-समृद्धि बनी रहे। विसर्जन से पहले भक्त सामूहिक रूप से आरती और फूल अर्पित करते हैं, जो मां के प्रति कृतज्ञता और विदाई का प्रतीक है।
इसके बाद जल यात्रा का समय आता है। देवी की प्रतिमा को ढोल-नगाड़ों और भक्ति गीतों के साथ विसर्जन स्थल तक ले जाया जाता है, जिससे देवी के जाने का दुख और उनके स्वागत की परंपरा व्यक्त होती है। इस दौरान 'फिरे आशबेन आबार' या 'अगले बरस तू जल्दी आ' का जयघोष होता है। फिर प्रतिमा का जल में विसर्जन कर दिया जाता है। यह दर्शाता है कि पंचतत्व में विलीन होकर मां फिर से सृष्टि का हिस्सा बनती हैं।
यह जानना जरूरी है कि दुर्गा पूजा का प्रमाण मध्य बंगाली साहित्य के पारंपरिक रामायण (पाचाली रूप में लिखा गया) कृत्तिवास रामायण (15वीं शताब्दी) और कुछ अन्य स्थानीय ग्रंथों में मिलता है। कथानुसार देवताओं को नींद से जगाने (अकाल बोधन) के रूप में षष्ठी से देवी का आवाहन होता है। इसके अलावा, धर्म सिंधु और निर्णय सिंधु जैसे स्मृतिकारों के ग्रंथों में प्रतिमा विसर्जन की विधि बताई गई है, जिसमें मिट्टी की मूर्ति के विसर्जन का विधान है।