क्या पुरुषोत्तम दास टंडन ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई?

सारांश
Key Takeaways
- राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का योगदान आज भी प्रासंगिक है।
- हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए संघर्ष किया।
- उन्होंने नैतिकता और आदर्शों का पालन किया।
- स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी।
- उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
नई दिल्ली, 31 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। स्वतंत्र भारत की 21वीं सदी में, जब हम भाषाई संकट और पहचान की बहस के दौर से गुजर रहे हैं, तब एक महान आत्मा का जीवन और उनके विचार पुनः प्रासंगिक हो जाते हैं। 1 अगस्त 1882 को प्रयागराज में जन्मे इस अद्वितीय व्यक्तित्व ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया, बल्कि स्वतंत्र भारत की आत्मा को एक स्वर, एक भाषा और एक विचार देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
उन्हें राजर्षि के नाम से जाना जाता था, क्योंकि वे राजनीति में रहते हुए भी ऋषि तुल्य नैतिकता और आदर्शों के प्रतीक बने रहे। उनका मानना था कि आजादी केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि भाषिक और सांस्कृतिक चेतना का भी प्रश्न है। इसी दृष्टिकोण से उन्होंने हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने के लिए कई वर्षों तक संघर्ष किया। जब देश के प्रमुख नेता जैसे महात्मा गांधी 'हिंदुस्तानी' के पक्ष में थे, तब टंडन जी ने स्पष्ट और निर्भीक होकर देवनागरी लिपि में 'हिन्दी' को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए संघर्ष किया। 1949 में संविधान सभा की ऐतिहासिक बहस में, टंडन जी की दृढ़ता ने हिंदी को न केवल संवैधानिक मान्यता दिलाई, बल्कि राष्ट्रभाषा के आंदोलन को नया आयाम दिया।
1950 में जब टंडन जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने, तो उस समय के प्रधानमंत्री नेहरू से उनके वैचारिक मतभेद स्पष्ट हो गए। जहां नेहरू धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद की बात करते थे, वहीं टंडन जी ने राष्ट्र निर्माण के लिए हिंदू सांस्कृतिक चेतना और हिंदी भाषा को केंद्रीय स्थान देने का समर्थन किया। टंडन जी ने अपनी किसी भी राय को सत्ता की लालसा से नहीं जोड़ा। उन्होंने 1951 में अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर यह सिद्ध कर दिया कि उनके लिए विचार और भाषा सर्वोपरि हैं, न कि पद।
पुरुषोत्तम दास टंडन केवल भाषाई योद्धा नहीं थे, बल्कि एक प्रखर पत्रकार, ओजस्वी वक्ता और हिंदी साहित्य के सच्चे सेवक भी थे। 'अभ्युदय' पत्रिका का संपादन करते हुए उन्होंने अपने लेखों के माध्यम से जनता को जागरूक किया और स्वतंत्रता आंदोलन में जोड़ा। 'बंदर सभा' जैसी महाकाव्यात्मक रचनाएं और 'हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों', 'मातृभाषा की महत्ता' जैसे निबंध उनके विचारों की गहराई को दर्शाते हैं।
पुरुषोत्तम दास टंडन ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में भी अद्वितीय कार्य किए। 13 वर्षों तक स्पीकर रहने के दौरान उन्होंने कभी भी पक्षपात नहीं किया, जबकि वे स्वयं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे। उनका यह नैतिक बल आज के राजनीतिक परिदृश्य में एक दुर्लभ उदाहरण है। उन्होंने किसानों के आंदोलन, जलियांवाला बाग की जांच समिति, सविनय अवज्ञा, असहयोग, भारत छोड़ो आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। 7 बार जेल गए, लेकिन अपने विचारों से कभी नहीं डिगे।
पुरुषोत्तम दास टंडन के हिंदी प्रेम का प्रभाव इतना व्यापक था कि उन्होंने प्रयागराज में हिंदी विद्यापीठ की स्थापना की। यह संस्था आज भी हिंदी भाषा और साहित्य की लौ को जलाए हुए है। वे समझते थे कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए केवल उत्तर भारत नहीं, बल्कि दक्षिण और पूर्व के राज्यों को भी जोड़ना होगा, और यही कार्य उन्होंने सम्मेलनों के माध्यम से किया।
1961 में भारत सरकार ने पुरुषोत्तम दास टंडन को भारत रत्न से सम्मानित किया। यह न केवल उनके राजनीतिक और भाषाई योगदान का सम्मान था, बल्कि उन मूल्यों का भी जो उन्होंने आजीवन बनाए रखा।
1 जुलाई 1962 को उनका देहावसान हुआ, लेकिन राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के विचार आज भी जीवित हैं, हर उस व्यक्ति में जो राष्ट्र की आत्मा को उसकी भाषा से जोड़कर देखता है।