क्या सोहराब मोदी भारतीय सिनेमा के पहले सच्चे ऑट्यूर थे?
सारांश
Key Takeaways
- सोहराब मोदी भारतीय सिनेमा के पहले सच्चे ऑट्यूर थे।
- उनकी गूंजती आवाज ने सिनेमा को नया आयाम दिया।
- सोशल मुद्दों पर आधारित फिल्में बनाकर उन्होंने समाज को जागरूक किया।
- उनकी फिल्में इतिहास को जीवंत करने का माध्यम बनीं।
- उन्हें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
नई दिल्ली, 1 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। अपनी गूंजती हुई आवाज और नाटकीय अभिनय शैली के लिए प्रसिद्ध सोहराब मोदी केवल एक अभिनेता नहीं थे, बल्कि वे भारतीय सिनेमा के पहले वास्तविक ऑट्यूर थे। 2 नवंबर को उनकी जयंती पर उन्हें याद करना उस समय को पुनः जीवित करना है जब पर्दे पर संवाद गूंजते थे, तलवारें टकराती थीं, और इतिहास बोलता था।
वे एक ऐसे फिल्मकार थे, जिन्होंने रंगमंच की गरिमा को पर्दे पर लाया और सामाजिक तथा ऐतिहासिक चेतना को सिनेमा के माध्यम से जीवंत किया। इसके साथ ही, उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए भारतीयों को सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकारों के प्रति प्रेरित किया।
2 नवंबर 1897 को बॉम्बे (अब मुंबई) में एक पारसी परिवार में जन्मे सोहराब मोदी भाई-बहनों में 11वें थे। छोटी उम्र में अपनी मां को खो चुके सोहराब का प्रारंभिक जीवन रामपुर में बीता। यहीं उन्हें हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में निपुणता हासिल हुई।
समाचार लेखों में उल्लेख मिलता है कि सोहराब मोदी का फिल्मों की ओर रुझान स्कूल के प्रिंसिपल की एक सलाह के बाद बढ़ा। उन्होंने अपने स्कूल के प्रिंसिपल से पूछा कि उन्हें क्या बनना चाहिए। प्रिंसिपल ने कहा कि उन्हें अभिनेता या राजनेता बनना चाहिए। शायद इसी समय नियति ने उन्हें मंच और कैमरे के लिए चुना।
उनके भाई की एक यात्रा सिनेमा कंपनी थी। 16 साल की उम्र में सोहराब ने यहीं से फिल्मों से पहला परिचय लिया। 'आलम आरा' (1931) के साथ जब भारतीय सिनेमा में ध्वनि का युग आया, तो मोदी ने समय की मांग को समझा और अपने भाई के साथ स्टेज फिल्म कंपनी बनाई।
उन्होंने एक नाटक मंडली स्थापित की, जो उर्दू में शेक्सपियर के नाटकों का मंचन करती थी। इनमें 'खून का खून' (1935) और 'सैद-ए-हवस' (1936) शामिल हैं।
उनकी पहली फिल्म, 'आत्मतरंग' (1937), स्वामी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं से प्रेरित थी, लेकिन शुरुआत में बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। इस असफलता के बावजूद मोदी का दृढ़ निश्चय तब सामने आया जब उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों से प्रोत्साहन मिला।
उन्होंने सामाजिक रूप से प्रासंगिक फिल्में बनाना जारी रखा। 'जेलर' (1938) और 'मीठा जहर' (1938) जैसी फिल्में शराब की लत पर आधारित थीं, जबकि 'भरोसा' (1940) अवैध संबंधों और अनाचार जैसे विषयों पर आधारित थी।
इसके बाद उन्होंने इतिहास को जीवंत करते हुए 'पुकार' (1939), 'सिकंदर' (1941) और 'पृथ्वीवल्लभ' (1943) जैसी फिल्मों का निर्माण किया। फिर उन्होंने 'पृथ्वी वल्लभ' (1943) और भारत की पहली टेक्नीकलर फिल्म 'झांसी की रानी' (1952) पर काम किया।
अगले वर्षों में उन्होंने 'मिर्जा गालिब' (1954) बनाई, जिसमें उर्दू शायरी को पर्दे पर जीवित किया गया। इस फिल्म ने राष्ट्रीय पुरस्कार जीता।
सोहराब मोदी ने हर विषय को पर्दे पर उतारा, जिसमें 'नरसिंह अवतार' (1949) जैसी पौराणिक, 'कुंदन' (1955) जैसी सामाजिक और 'नौशेरवान-ए-आदिल' (1957) जैसी कहानियां शामिल थीं।
जब सोहराब मोदी की बात होती है, तो उनके बारे में एक किस्सा जरूर सुनना चाहिए, जब उनकी फिल्म के लिए नेत्रहीन भी थिएटर आए थे। 1950 में सोहराब मोदी की फिल्म 'शीश महल' आई थी, जिसे थिएटर में दिखाया जा रहा था। उस थिएटर में खुद सोहराब मोदी मौजूद थे, लेकिन उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी जो आंख बंद करके बैठा था। बाद में पता चला कि वह व्यक्ति नेत्रहीन था, जो केवल सोहराब मोदी की आवाज सुनने आया था।
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भी मोदी सिनेमा के प्रति उतने ही समर्पित रहे। उनकी अंतिम झलक 1983 की फिल्म 'रजिया सुल्तान' में देखी गई। 1980 में उन्हें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इससे स्पष्ट होता है कि सोहराब मोदी की विरासत न केवल उनकी फिल्मों के माध्यम से, बल्कि इतिहास को बयां करने और सामाजिक परिवर्तन लाने की सिनेमा की परिवर्तनकारी शक्ति के प्रमाण के रूप में भी कायम है, जिसने भारतीय सांस्कृतिक इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी।