क्या उत्तराखंड के अल्मोड़ा में सातूं-आठूं पर्व का उत्सव अद्भुत है?

सारांश
Key Takeaways
- सातूं-आठूं पर्व कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहर है।
- महिलाएं इस पर्व में भगवान शिव और माता गौरा की पूजा करती हैं।
- यह पर्व भाद्रपद मास में मनाया जाता है।
- महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए उपवास रखती हैं।
- यह पर्व नई पीढ़ी को अपनी परंपराओं से जोड़ने का अवसर प्रदान करता है।
अल्मोड़ा, 6 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में भाद्रपद मास में सातूं-आठूं पर्व का उत्सव पूरे धूमधाम से मनाया जा रहा है। यह लोकपर्व कुमाऊं क्षेत्र में अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और पड़ोसी देश नेपाल के विभिन्न हिस्सों में बड़े हर्षोल्लास के साथ आयोजित किया जाता है। इस पर्व के दौरान महिलाएं भगवान शिव और माता गौरा की पूजा करती हैं, जिन्हें बेटी और दामाद के रूप में सम्मानित किया जाता है।
सातूं-आठूं पर्व में महिलाएं पारंपरिक परिधान धारण कर के धान, मादिरा, कुकुड़ी और माकुड़ी से शिव और गौरा की मूर्तियां बनाती हैं, उनकी शादी रचाती हैं और पूरे विधि-विधान के साथ पूजा करती हैं। यह पर्व भाद्रपद मास की अमुक्ताभरण सप्तमी (सातूं) और दूर्बाष्टमी (आठूं) को मनाया जाता है। सप्तमी को महिलाएं बाएं हाथ में पीले धागे युक्त डोर और अष्टमी को गले में दूब घास के साथ अभिमंत्रित लाल धागे (दुबड़े) पहनती हैं।
विवाहित महिलाएं अखंड सौभाग्य और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं, जबकि कुंवारी युवतियां केवल गले में दुबड़े धारण करती हैं।
पंचमी के दिन बिरूड़े (सात दालें- गेहूं, चना, राजमा, उड़द, सोयाबीन, मटर, घौट) भिगोए जाते हैं। सप्तमी को धान की सूखी पराल, तिल और दूब से गौरा-महेश की मूर्तियां बनाकर स्थापित की जाती हैं। रात्रि जागरण में लोक संस्कृति पर आधारित गीत गाए जाते हैं, जो अष्टमी तक जारी रहते हैं। अष्टमी को खुले स्थान पर अनाज, धतूरे, फल-फूलों से पूजा के बाद गौरा-महेश को नम आंखों से विदाई दी जाती है और केले के पेड़ के नीचे विसर्जित किया जाता है।
महिलाओं का कहना है कि इस पर्व में दो दिन का उपवास रखा जाता है, जो गौरा को ससुराल भेजने के बाद तोड़ा जाता है। इस दौरान विशेष पकवान बनाए जाते हैं और शिव-गौरा को भोग अर्पित किया जाता है। महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए डोर और दुबड़े पहनती हैं।
बुजुर्ग महिलाएं बताती हैं कि यह पर्व सावन माह के शुक्ल पक्ष में भी मनाया जाता है, जिसमें शिव और गौरा की शादी कराकर उनकी पूजा की जाती है।
सातूं-आठूं की कथा चंपावत के राजा और उनकी सात रानियों से जुड़ी है। कथा के अनुसार, राजा की सात रानियों में से किसी को संतान नहीं थी। राजा ने संतान प्राप्ति के लिए बिरूड़े भिगोने का व्रत रखने को कहा। छह रानियां बिरूड़े खा लेती हैं, जिससे उनका व्रत टूट जाता है, लेकिन सातवीं रानी कोयला खाकर व्रत पूरा करती है और गर्भवती होकर गोलू देवता को जन्म देती है। ईर्ष्यावश छह रानियां बच्चे को नदी किनारे फेंक देती हैं, जहां एक मछुआरा उसका पालन-पोषण करता है। बाद में सातवीं रानी अपने पुत्र से मिलती है, और राजा छह रानियों को त्यागकर सातवीं रानी और पुत्र को राजपाठ सौंप देता है।
यह पर्व कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। जहां पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में नई पीढ़ी परंपराओं से विमुख हो रही है, वहीं पहाड़ी क्षेत्रों की महिलाएं अपनी संस्कृति को जीवंत रख रही हैं। जरूरत है कि युवा पीढ़ी को इस समृद्ध परंपरा से जोड़ा जाए।