क्या जैनेंद्र कुमार ने भारत का मानचित्र बनाकर लिए थे 'फेरे' और ठुकरा दिया था 'हिंदी सलाहकार' का पद?
सारांश
Key Takeaways
- जैनेंद्र कुमार ने हिंदी उपन्यास को नई दिशा दी।
- उन्होंने जीवन में सिद्धांतों पर अडिग रहने की प्रेरणा दी।
- उनकी रचनाएं आज भी पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं।
- उन्होंने सरकारी सुविधाओं से दूर रहकर सत्याग्रह किया।
- उनकी देशभक्ति ने उन्हें अद्वितीय बनाया।
नई दिल्ली, 23 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। हिंदी साहित्य के मनोवैज्ञानिक कथाकार जैनेंद्र कुमार की साहित्यिक प्रतिभा ने हिंदी उपन्यास को एक नई दिशा प्रदान की। उन्होंने मनोविश्लेषण की गहराई से पात्रों के अंतर्मन को कलम के माध्यम से कोरे कागज पर उकेरा। नई विचारधारा और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण कुछ आलोचकों ने उन्हें विवादास्पद माना, जबकि कई साहित्यकारों ने उन्हें 'मानव मन का मसीहा' या 'नए युग का प्रवर्तक' कहा।
2 जनवरी 1905 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज गांव में जन्मे जैनेंद्र (बचपन का नाम आनंदीलाल) को प्रेमचंद के बाद हिंदी का सबसे सम्मानित उपन्यासकार माना जाता है। वह हिंदी उपन्यास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक थे। जैनेंद्र का बचपन मुश्किलों से भरा रहा। मात्र दो साल की उम्र में पिता का निधन हो गया, और मां एवं मामा ने उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की। वे स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे और 1920 के दशक में कई बार गिरफ्तार हुए। इसके बाद उन्होंने पत्रकारिता की, लेकिन साहित्य ही उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया। उनकी शानदार रचनाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्म भूषण से भी सम्मानित किया।
जैनेंद्र की जिंदगी में कई रोचक घटनाएं हैं। विवाह के समय उन्होंने आंगन में भारत का मानचित्र बनवाया और उसी पर फेरे लिए। यह कदम उनकी देशभक्ति का प्रतीक था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने भारत की एकता और अखंडता के लिए समर्पण दिखाया। उन्होंने संकल्प लिया कि उनका वैवाहिक जीवन भी देश की सेवा और स्वतंत्रता से जुड़ा रहेगा।
इसी देशभक्ति के चलते उन्हें सरकारी पदों से परहेज था। स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने उन्हें हिंदी सलाहकार समिति का पद ऑफर किया, लेकिन जैनेंद्र ने विनम्रता से मना कर दिया। उनका मानना था कि सरकारी पद स्वतंत्र लेखन में बाधा डाल सकता है। साहित्यकार की आजादी और निष्पक्षता उनके लिए सर्वोपरि थी। उन्होंने जीवनभर सरकारी सुविधाओं से दूर रहकर सत्याग्रह किया।
जैनेंद्र ने न केवल साहित्य में मनोविश्लेषण की नई परंपरा स्थापित की, बल्कि जीवन में भी सिद्धांतों पर अडिग रहे। उनकी रचनाएं आज भी पाठकों को गहराई से सोचने पर मजबूर करती हैं। उनकी कृतियां व्यक्ति के आंतरिक द्वंद्व, नैतिकता और मानवीय संबंधों की गहराई को छूती हैं।
उनकी प्रमुख रचनाओं में परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, मुक्तिबोध, विवर्त, जयवर्धन, नीलम देश की राजकन्या शामिल हैं। कहानी संग्रह में फांसी, वातायन, पाजेब, दो चिड़ियां और निबंध संग्रह में प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय जैसी कई अन्य रचनाएं हैं।
पात्रों के आंतरिक संघर्ष और मन की गहराइयों को केंद्र में रखने वाले इस साहित्यकार का 24 दिसंबर 1988 को निधन हो गया।