क्या आतंकवाद को किसी धर्म या आस्था से जोड़ना सही है? : जम्मू-कश्मीर के उपमुख्यमंत्री
सारांश
Key Takeaways
- आतंकवाद को धर्म से जोड़ना गलत है।
- युवाओं में बढ़ते अपराध को रोकने की आवश्यकता है।
- फिल्म इंडस्ट्री को सकारात्मक सामग्री पर ध्यान देना चाहिए।
जम्मू, 23 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। जम्मू-कश्मीर के उपमुख्यमंत्री सुरिंदर कुमार चौधरी ने आतंकवाद, सामाजिक चुनौतियों और युवाओं में बढ़ते अपराध को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि आतंकवाद को किसी धर्म या आस्था से जोड़ना अत्यंत अनुचित है।
विशेष बातचीत में चौधरी ने कहा कि गलत कार्य करने वाला चाहे डॉक्टर हो या किसी अन्य पेशे से जुड़ा व्यक्ति, उसके अपराध की जिम्मेदारी पूरी कम्युनिटी पर नहीं डाली जा सकती।
उदाहरण के लिए, यदि कोई डॉक्टर अपराध या उग्रवाद में लिप्त पाया जाता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि पूरा समुदाय दोषी है। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में सबसे अधिक पीड़ा उस परिवार को होती है जिसने अपने बच्चे को डॉक्टर बनाने का सपना देखा है। सोचिए उन माता-पिता पर क्या गुजरती होगी?
उपमुख्यमंत्री ने कहा कि जम्मू में कई बच्चे नशे की लत में फंस रहे हैं और कई अपराध की दिशा में बढ़ रहे हैं, लेकिन परिवारों को इसकी जानकारी तक नहीं होती। उन्होंने कहा कि उग्रवाद किसी धर्म से नहीं जुड़ा है और देशद्रोह करने वालों का न कोई धर्म होता है, न कोई मजहब। उनका उद्देश्य केवल विनाश है।
हाल ही में नौगाम में हुए धमाके का उल्लेख करते हुए चौधरी ने कहा कि बिना किसी कारण निर्दोष लोगों की जान चली गई, जबकि उन्हें यह तक नहीं पता था कि क्या हो रहा है। यह चिंता का विषय है कि हथियार और विस्फोटक इतनी आसानी से संवेदनशील क्षेत्रों में पहुंच रहे हैं। ऐसे समय में सिविल सोसाइटी, बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।
उन्होंने कहा कि अगर कॉलेजों में पढ़ने वाले युवा, जिन्हें डॉक्टर या अन्य सम्मानित पेशेवर बनना है, उग्रवादी गतिविधियों की ओर आकर्षित हो रहे हैं, तो यह न केवल जम्मू-कश्मीर बल्कि पूरे देश के लिए चिंताजनक है। एजेंसियों को ऐसे युवाओं की पहचान कर उन्हें शुरुआती स्तर पर रोकने की आवश्यकता है।
उपमुख्यमंत्री सुरिंदर कुमार चौधरी ने फिल्म इंडस्ट्री पर भी अपनी राय दी और कहा कि हिंसा और मारधाड़ वाली फिल्मों का प्रभाव समाज पर नकारात्मक हो सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि इंडस्ट्री को धार्मिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक फिल्मों को बढ़ावा देना चाहिए, क्योंकि पैसे कमाने की दौड़ में संस्कृति और मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि समाज और राष्ट्रहित के लिए फिल्म उद्योग को सकारात्मक और प्रेरक सामग्री पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।