क्या शिवाजी सावंत ने महाभारत के कर्ण को एक नायक के रूप में जीवित किया?

सारांश
Key Takeaways
- शिवाजी सावंत ने महाभारत के कर्ण को एक नायक के रूप में प्रस्तुत किया।
- 'मृत्युंजय' ने साहित्य में एक नई दिशा दी।
- सावंत की लेखन शैली गहराई और संवेदनशीलता से भरी हुई थी।
- उन्होंने कई ऐतिहासिक पात्रों के अनछुए पहलुओं को उजागर किया।
- उनका कार्य आज भी लाखों पाठकों को प्रेरित करता है।
नई दिल्ली, 17 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। कई साल पहले एक युवा बैंक क्लर्क अपनी कुर्सी पर बैठा था, लेकिन उसका मन कहीं और था। वह अपनी मेज पर रखे कागजात पर ध्यान देने के बजाय, खिड़की से बाहर देख रहा था और उसके दिमाग में महाभारत के एक पात्र की कहानी गूंज रही थी। यह पात्र कोई और नहीं, बल्कि दानवीर कर्ण था।
ये बैंक क्लर्क थे शिवाजी सावंत। उनकी नौकरी भले ही पैसों के हिसाब-किताब की थी, लेकिन उनकी आत्मा शब्दों और कहानियों के हिसाब-किताब में डूबी रहती थी। एक दिन, उन्होंने अपने एक दोस्त से कहा, "क्या तुम्हें नहीं लगता कि कर्ण के साथ अन्याय हुआ है? उसकी कहानी हमेशा कृष्ण और अर्जुन के दृष्टिकोण से बताई गई है, लेकिन उसके दर्द और संघर्ष को किसी ने महसूस नहीं किया।"
उनका दोस्त मुस्कुराया और बोला, "तो तुम क्या करने जा रहे हो?" शिवाजी सावंत ने अपनी आँखें बंद कीं और गहरी सांस ली। उनके मन में उस पल जो कहानी शुरू हुई, वह इतिहास रचने वाली थी। उन्होंने उस दिन ठान लिया कि वह कर्ण के जीवन पर एक ऐसी किताब लिखेंगे जो सिर्फ उसके दर्द को नहीं, बल्कि उसके स्वाभिमान, उसकी मित्रता और उसके जीवन की हर परत को दिखाएगी।
यह एक बैंक कर्मचारी का सपना था, जिसने एक ऐसा उपन्यास लिखने का जोखिम उठाया जिसके लिए उसे कई साल की तपस्या और शोध की आवश्यकता थी, और इस सपने का परिणाम था 'मृत्युंजय,' एक ऐसी कृति जिसने मराठी साहित्य के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया।
शिवाजी सावंत का जन्म 31 अगस्त, 1940 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था। एक साधारण परिवार में पले-बढ़े, उनका जीवन किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह था। बैंक की नौकरी, परिवार की जिम्मेदारियां और रोजमर्रा का संघर्ष। लेकिन इस सब के बीच, उनके अंदर एक लेखक लगातार जागता रहा। वे घंटों तक लाइब्रेरी में बैठकर इतिहास और पौराणिक कथाओं का अध्ययन करते थे। उन्हें इतिहास सिर्फ घटनाओं का संग्रह नहीं लगता था, बल्कि वह उसे मानवीय भावनाओं का एक जटिल ताना-बाना मानते थे।
जब उन्होंने 'मृत्युंजय' लिखना शुरू किया, तो यह कोई आसान काम नहीं था। उन्हें सालों तक महाभारत के अलग-अलग संस्करणों का गहन अध्ययन करना पड़ा। उन्होंने कर्ण के चरित्र को इतनी संवेदनशीलता से समझा और गढ़ा कि जब यह उपन्यास 1967 में प्रकाशित हुआ, तो इसने साहित्यिक दुनिया में एक अलग छाप छोड़ी। पाठकों ने पहली बार कर्ण को एक नायक की तरह देखा, जो अपनी नियति से लड़ता रहा और हर मुश्किल में भी अपने आदर्शों पर अडिग रहा।
'मृत्युंजय' की सफलता ने शिवाजी सावंत को रातों-रात एक साहित्यिक सितारा बना दिया, लेकिन वे अपनी सफलता पर रुके नहीं। वे जानते थे कि इतिहास और पौराणिक कथाओं में अभी और भी कई अनसुनी कहानियां हैं। उन्होंने एक के बाद एक कई उत्कृष्ट कृतियां लिखीं, जिनमें 'छावा', 'युगंधर', और 'कादंबरी' शामिल हैं।
'मृत्युंजय' के बाद, सावंत ने अपनी कलम से एक और महान ऐतिहासिक चरित्र 'छत्रपति संभाजी महाराज' को जीवंत किया। 'छावा' में उन्होंने संभाजी के जीवन के अनछुए पहलुओं को दिखाया। यह एक ऐसा उपन्यास था जिसने संभाजी के बलिदान और संघर्ष को एक नई पहचान दी।
'युगंधर' में सावंत ने भगवान कृष्ण के जीवन के दार्शनिक पहलुओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कृष्ण को सिर्फ एक भगवान के रूप में नहीं, बल्कि एक युग निर्माता, एक दूरदर्शी नेता और एक साधारण इंसान के रूप में चित्रित किया।
सावंत की लेखन शैली की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे सिर्फ घटनाओं को नहीं, बल्कि पात्रों के मन के भीतर के द्वंद्व को भी दर्शाते थे। उनकी अभिव्यक्तियां इतनी गहरी थीं कि वे पाठकों के दिल को सीधे छू जाती थीं। इसके अलावा, उनकी अन्य उल्लेखनीय रचनाओं में 'कादंबरी' और 'लढाई' शामिल हैं, जो पानीपत के युद्ध पर आधारित है।
18 सितंबर, 2002 को जब शिवाजी सावंत ने अपनी अंतिम सांस ली, तो उन्होंने एक साहित्यिक विरासत छोड़ी, जो आज भी लाखों पाठकों को प्रेरित करती है। 'मृत्युंजय' का हर पृष्ठ, 'छावा' का हर अध्याय और 'युगंधर' का हर शब्द आज भी जीवंत हैं।