क्या भोजन है 'श्रेष्ठ औषधि,' और माइंडफुल ईटिंग क्यों है जरूरी?

सारांश
Key Takeaways
- भोजन को औषधि मानें
- पवित्र मन से ग्रहण करें
- माइंडफुल ईटिंग को अपनाएं
- दीप जलाकर वातावरण को पवित्र करें
- आचमन का अभ्यास करें
नई दिल्ली, १ सितम्बर (राष्ट्र प्रेस)। आजकल, अक्सर ऐसा होता है कि हम जल्दी में केवल पेट भरने पर ध्यान देते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे पूर्वज भोजन को केवल ऊर्जा नहीं, बल्कि सम्मान मानते थे? तीन थंबरूल अपनाकर हम स्वस्थ रह सकते हैं। पहला, भोजन को औषधि मानना; दूसरा, पवित्र मन से भोजन ग्रहण करना; और सबसे महत्वपूर्ण, माइंडफुल ईटिंग को प्राथमिकता देना।
सुश्रुत संहिता में कहा गया है: "भोजनं औषधं श्रेष्ठं," जिसका मतलब है कि भोजन ही सर्वोत्तम औषधि है। इसलिए इसे अनुष्ठान की तरह ग्रहण करें, सिर्फ आदत न बनाएं।
आयुर्वेद के अनुसार, जब हम भोजन को आदरपूर्वक और ध्यानपूर्वक ग्रहण करते हैं, तो यह केवल शरीर नहीं, बल्कि मन और आत्मा को भी पोषित करता है। इसके लिए पहले दीप जलाकर वातावरण को पवित्र बनाएं। भोजन से पूर्व दीपक जलाने की परंपरा न केवल धार्मिक है, बल्कि वैज्ञानिक भी है। यह मन को शांत करता है और ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है। सुश्रुत संहिता में लिखा गया है—"शुद्धे देशे, शमायुक्ते..." यानी स्वस्थ वातावरण और शांत मन में भोजन सर्वोत्तम फल देता है।
भोजन से पहले आचमन कर थाली के इर्द-गिर्द जल छिड़कने का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। भोजन से पहले 'कराग्रे वसते लक्ष्मी...' या 'अन्नदाता सुखी भव' कहना एक मनोवैज्ञानिक अभ्यास है। यह तनाव को कम करता है और पाचन क्रिया को उत्तेजित करता है। इस दौरान जो कुछ भी ग्रहण करते हैं, वह शक्ति प्रदान करता है।
आधुनिक समय में माइंडफुल ईटिंग को बेहद जरूरी माना जाता है—ऐसा भोजन जो सोच-समझकर ग्रहण किया जाए। जब हम चलते-फिरते या स्क्रीन देखते हुए खाते हैं, तब न स्वाद महसूस करते हैं, न संतोष। सुश्रुत संहिता के अनुसार, "यथा मात्रा तथा काले" सूक्त प्रसिद्ध है। भोजन का समय, मात्रा और भाव—ये तीनों उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं।
इसलिए, जब भोजन को दीप जलाकर, आभार के साथ, शांति से आदरपूर्वक ग्रहण किया जाता है, तो वह औषधि बन जाता है। ये कोई कठोर नियम नहीं, बल्कि जीवन को सुंदर बनाने वाले अनुष्ठान हैं।