क्या महर्षि अरविंद घोष का जीवन आजादी के आंदोलन से योग साधना तक का सफर है?

सारांश
Key Takeaways
- महर्षि अरविंद घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को हुआ।
- उन्होंने भारतीय सिविल सेवा परीक्षा पास की थी।
- वे बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन में शामिल हुए।
- जेल में उन्हें साधना का अनुभव मिला।
- उन्होंने अरविंद आश्रम ऑरोविले की स्थापना की।
नई दिल्ली, 14 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। पश्चिम बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से महर्षि अरविंद घोष ने देश की आध्यात्मिक क्रांति की पहली चिंगारी को प्रज्वलित किया। उनका जन्म कोलकाता में 15 अगस्त 1872 को हुआ था और उनका निधन 5 दिसंबर 1950 को पुडुचेरी में हुआ। आइए, महर्षि अरविंद घोष की जयंती पर उनके जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को जानते हैं।
महर्षि अरविंद घोष के पिता का नाम केडी कृष्णघन घोष था, जो एक चिकित्सक थे। उनकी मां का नाम स्वर्णलता देवी और पत्नी का नाम मृणालिनी था। पांच वर्ष की उम्र में, अरविंद घोष ने दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में दाखिला लिया। दो वर्ष बाद, 1879 में उन्हें उच्च शिक्षा के लिए अपने भाई के साथ इंग्लैंड भेजा गया। कई वर्षों तक वहां रहने के बाद, 1890 में 18 वर्ष की आयु में उन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला, जहां उन्होंने दर्शनशास्त्र की पढ़ाई पूरी की।
अरविंद घोष ने अपने पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए 1890 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा पास की, लेकिन घुड़सवारी की अनिवार्य परीक्षा में असफल होने के कारण उन्हें भारत सरकार की सिविल सेवा में प्रवेश नहीं मिला। इसके बाद, वे अपने देश लौट आए। उनके विचारों से प्रेरित होकर गायकवाड़ नरेश ने उन्हें बड़ौदा में निजी सचिव के पद पर नियुक्त किया। बाद में, वे बड़ौदा से कोलकाता आए, जहां वे आजादी के आंदोलन में शामिल हो गए।
उनके भाई बारिन ने बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से अरविंद घोष की मुलाकात कराई। 1902 में, वे बाल गंगाधर तिलक से मिले और उनके विचारों से प्रभावित होकर स्वतंत्रता के संघर्ष में शामिल हो गए। 1906 में, ब्रिटिश सरकार द्वारा बंगाल प्रांत के विभाजन का विरोध करते हुए अरविंद घोष ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और हमेशा के लिए बड़ौदा से कोलकाता आ गए।
नौकरी छोड़ने के बाद, अरविंद घोष ने 'वंदे मातरम्' साप्ताहिक के सह-संपादक के रूप में कार्य किया और ब्रिटिश सरकार के अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखने और आलोचना करने पर उनके खिलाफ मामला हुआ, लेकिन वे छूट गए।
1905 में बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से उनका नाम जुड़ गया और उनके खिलाफ 1908-09 में अलीपुर बमकांड में राजद्रोह का मामला चलाया गया। इस मामले में उन्हें जेल की सजा मिली। अलीपुर जेल में उनका जीवन बदल गया और वे साधना एवं तप में जुट गए।
महर्षि अरविंद घोष वहां श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते थे और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करते थे। जेल से बाहर आने के बाद, वे आंदोलन से नहीं जुड़े और 1910 में पुडुचेरी चले गए। वहां उन्होंने सिद्धि प्राप्त की और अरविंद आश्रम ऑरोविले की स्थापना की तथा काशवाहिनी नामक रचना की। महान योगी और दार्शनिक महर्षि अरविंद घोष ने योग साधना पर कई मौलिक ग्रंथ लिखे।